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प्रात: भोजन समाप्त हुआ। कोशा और स्थूलभद्र आम्रवाटिका में गये। वे एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। माधवी साथ थी। कोशा ने कहा- 'माधवी! चित्रा कहां गई है?' 'अपने प्रियतम का सत्कार कर रही है।' 'प्रियतम कौन?' जानते हुए कोशा ने प्रश्न किया।
'आर्य स्थूलभद्र के अंगरक्षक उद्दालक!' माधवी ने कहा । स्थूलभद्र ने चमककर कहा- 'उद्दालक ?'
'हां, मेरी प्रिय दासी चित्रा का वह प्रणयी है। आप नहीं जानते?' कोशा ने तिरछी नजरों से स्थूलभद्र को देखा।
'देवी! एक बात कहूंगा । आपको आश्चर्य होगा और संभव है उसको सुनने के बाद मेरे-जैसे अरसिक के प्रति आपका सद्भाव भी न रहे!' स्थूलभद्र ने विचित्र उत्तर दिया।
"ऐसी कौन-सी बात है ?' कोशा आतुर नयनों से स्थूलभद्र के बदन को देखने लगी।
"स्त्रियों की बातों में न मुझे रस है और न मैंने आज तक किसी स्त्री के साथ विनोद ही किया है। मेरा यह स्वभाव है और संभव है इसीलिए उद्दालक ने मुझे कभी कुछ न कहा हो।'
'आश्चर्य! संभव है देवी का प्रतिबन्ध हो।' यह प्रश्न कर कोशा हंसने लगी।
स्थूलभद्र बोले- 'कौन देवी?' 'आपकी जीवन-संगिनी...'
हंसते हुए आर्य स्थूलभद्र ने कहा- 'मेरी जीवन-सहचरी! सहचरी का ऐसा कोई प्रतिबंध तो नहीं है, किन्तु...'
___ कोशा स्थूलभद्र की विनोद वाणी को समझ नहीं सकी। उसका मन आशंका से भर गया। क्या जीवन-सहचरी है ? कौन है ? फिर मेरा क्या...?
'मुझे और मेरी जीवनसहचरी को एकान्त बहुत प्रिय है इसलिए मैं कहीं नहीं आता-जाता और....'
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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