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'बेचारे बाभ्रव्य! यदि वह स्त्री होता तो ऐसा कभी नहीं लिखता। चित्रा! मिलन की आकांक्षा-यह वाक्य उचित नहीं है। इसके स्थान पर होना चाहिए-मिलन की तपश्चर्या.... कोशा ने मृदु स्वर में कहा।
'तपश्चर्या....?'
'हां, जिस साधना के पीछे प्राणों का परिश्रम है, वह तपश्चर्या ही है।'
'तो फिर आचार्य ब्राभ्रव्य का वचन....'
चित्रा का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ कि कोशा बीच में ही बोल उठी'बाभ्रव्य का कथन सत्य है। जहां देह का श्रम होता है वहां आकांक्षा है....यह अभिसार का भेद है।'
'हां....' 'मैंने एक बार तुम्हें चन्द्राभिसार का अर्थ समझाया था?' 'हां....'
'जैसे यौवन और यौवन के प्राणों में भेद है, वैसे ही मिलन की आकांक्षा और मिलन की तपश्चर्या में भेद है।'
'देवी की वाणी आज कुछ गूढ़ हो गई है।' इतने में ही एक परिचारिका ने स्थूलभद्र के आगमन की सूचना दी।
कोशा स्वागत करने द्वार पर गई। पुष्पों की मालाएं साथ थीं। स्थूलभद्र आए। कोशा ने माला को हाथ में ले नमस्कार किया। स्थूलभद्र के गले में माला पहनाते हुए कहा- 'कुशल-क्षेम है ?'
'देवी की प्रसन्नता देखकर पूर्ण कुशल है।' दोनों स्वर्ण-आसन पर बैठे। भोजन का समय हुआ।
विविध प्रकार की भोजन-सामग्री तैयार की गई थी। सबसे पहले तुलसी का पेय परोसा गया। शरद् ऋतु में हरियाली खाने का नियम होने के कारण शामक वस्तुओं के विविध प्रकार के लेह तैयार किये गए थे। वे भी परोसे गए।
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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