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१७. मिलन : एक साधना
आज स्थूलभद्र रूपकोशा के घर अतिथि बनने वाले थे।
रूपकोशा का कण-कण नाच रहा था।
सूर्योदय से पहले ही रूपकोशा प्रात:कर्म से निवृत्त होकर स्थूलभद्र की प्रतीक्षा कर रही थी।
स्थूलभद्र नौका से आएंगे, या रथ में आएंगे, या शिविका में आयेंगेयह ज्ञात नहीं हो पाया था।
कोशा ने आज अपनी रूपसज्जा में सारी कला को नियोजित कर दिया था।
माता ने पुत्री की रूप-सज्जा देखकर कहा- 'पुत्री! तेरे हृदय की बात आज तेरी रूपसज्जा बता रही है। तेरा कण-कण मुखरित हो रहा है। मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है।'
चित्रा ने कहा- 'देवी! एक वस्तु आप भूल गई हैं।' 'क्या?' 'दर्पण में देखा, पता लग जाएगा।'
कोशा आदमकद शीशे के सम्मुख गई। कुछ क्षणों तक निहारती रही। आकर बोली-'चित्रा ! कुछ भी नहीं दिख रहा है। मुझे तो कोई कसर नजर नहीं आ रही है।'
'देवी! जो अलंकार अदृश्य रहना चाहिए, वह दृश्य बन गया है, बस यही कमी है।'
'कौन-सा अलंकार, चित्रा! अदृश्य अलंकार की बात तोआज ही सुनी।'
'आचार्य बाभ्रव्य का मत है कि पिउमिलन की आकांक्षा अदृश्य ही रहनी चाहिए'- चित्रा ने विनोद करते हुए कहा।
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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