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सुदास उठा और रूपकोशा की ओर बढ़ा। कोशा ने मुसकराते हुए कहा-'आप अधीर न बनें। बैठे रहें। जो कहना हो, नि:संकोच रूप से कहिए।'
"कोशा, जब से मैंने तुम्हें देखा है, तब से.....' सुदास वाक्य को पूरा नहीं कर सका।
'सब पागल हो जाते हैं, वैसे ही आप पागल हुए हैं, यही तो आप कहना चाहते हैं?' कोशा ने कहा।
'देवी! मैं तुम्हारा प्रेम प्राप्त करने आया हूं। मैं तुम्हें अंकशायिनी बनाना चाहता हूं।'
'केवल कटिमेखला देकर?' कोशा ने अंग मरोड़ते हुए कहा।
'नहीं, देवी! मैं अपनी सारी सम्पत्ति न्यौछावर करने के लिए तैयार हूं...तुम मुझे अपना दास बना लो...तुम मेरे मन की रानी बन जाओ...' कहकर सुदास कुछ निकट आया।
रूपकोशा निश्चलभाव से आसन पर बैठी थी। उसके नयन चमक रहे थे। सुदास के ज्ञानतंतु औषधि के प्रभाव में आ चुके थे।
सुदास दो कदम दूर था, तब कोशा अचानक उठी और बोली'केवल मेरा प्रेम चाहते हो?'
_ 'यदि वह मिलेगा तो मैं अमर बन जाऊंगा...' कहकर सुदास ने कोशा का हाथ पकड़ लिया। उसे विश्वास हो गया कि आज इस भुवनमोहिनी का सहवास मिलेगा और जगत् में रूपकला का भोगी मैं बनूंगा।
कोशा ने हाथ छुड़ाते हुए कहा- 'सुदास! सावधान हो जाओ। कोशा का प्रेम यह है...' कहकर उसने सुदास के मुंह पर कटिमेखला का प्रहार किया। वह प्रहार चाबुक जैसा था।
कोशा का यह व्यवहार देखकर सुदस की आंखें फटी-की-फटी रह गईं। कोशा बोली- 'पगले! संपत्ति के बल पर प्रेम को खरीदने का तुझे यही स्थान मिला?'
'देवी! मेरी परीक्षा...'
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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