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________________ देवी समझ गई । उसने कहा- ' श्रेष्ठीवर्य, आप बैठें और यहां आने का कारण बताएं ।' आसन पर बैठते हुए सुदास बोला - 'देवी! मैं एक अद्भुत वस्तु लाया हूं।' 'क्या है ?' 'रत्नों की कटिमेखला ।' उसने अपने वस्त्रों में से एक बहुमूल्य कटिमेखला बाहर निकाली। 'क्षमा करें। मैं भूल ही गई थी कि आप एक व्यापारी हैं। आप आए हैं तो मैं आपको निराश नहीं करूंगी। बोलें, इसका मूल्य कितना है ?' 'देवी....!' 'क्या मैं इसे खरीद नहीं सकती ?' 'मैं बेचने के लिए नहीं आया हूं।' 'तो फिर.... ?' 'उपहार के रूप में इसे अर्पित करने आया हूं।' सुदास के नयन अत्यधिक कामातुर हो गए। 'इस उपहार को स्वीकार कर आप मुझे धन्य बनाएं ।' रूपकोशा उठी और सुदास के पास जाकर कटिमेखला लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। सुदास ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा - 'देवी ! मैं एकान्त चाहता हूं।' 'ओह !.... अरे चित्रा ! तुम सब बाहर चले जाओ । श्रेष्ठी सुदास के साथ मुझे महत्त्वपूर्ण बातें करनी हैं !' कहकर कोशा ने सुदास के हाथ से कटिमेखला लेकर अपना हाथ छुड़ा लिया। रूपकोशा कटिमेखला को चारों ओर घुमाते हुए बोली- 'कहिए, क्या काम है ? अब पूर्ण एकान्त है ।' 'देवी......!' 'कहिए, संकोच न करें।' आर्य स्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only १०० www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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