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दिन उगा। कोशा अपने नित्य कार्य से निवृत्त होकर आरामगृह में गई। इतने में ही हंसनेत्रा ने आकर कहा- 'देवी! आर्य सुदास आए हैं।'
रूपकोशा ने दो क्षण तक सोचा। फिर बोली--'चित्रा! सुदास का आगमन क्यों होता है, मैं जानती हूं। यह केवल अर्थ का ही दास नहीं है, नगरनारी का भी दास है। तू उसको औषधिवाला पान खिलाना, जिससे उसकी वासना और तीव्र बन जाए।'
'परन्तु देवी....।'
'चित्रा! चिंता मत करना। यह पागल नहीं बनेगा तो मार नहीं खा सकेगा....यदि इसकी एक बार पिटाई नहीं होगी तो यह बार-बार मेरे द्वार पर आ धमकेगा।'
'देवी! ऐसे प्रयोगों के पीछे एक भय भी बना रहता है।'
'चित्रा! लगता है तुझे कामशास्त्र का कोई सूत्र याद आ गया। यह सूत्र सामान्य जनता के लिए सत्य है....परन्तु बहुत बार विष का अपनयन विष से ही किया जाता है।'
'जैसी आज्ञा.....' कहकर चित्रा चली गई। एक घटिका बीत गयी। रूपकोशा अप्सरा का-सा रूप बनाकर मध्यखंड में आयी। सुदास एक आरामदायी आसन पर बैठा था। चित्रा द्वार पर खड़ी हो गयी।
कोशा को आते देख सुदास हर्ष-विभोर हो उठा। उसने प्रणाम करते हुए कहा- 'देवी! कुशल तो हैं ?'
'हां, आपको देखकर बहुत प्रसन्नता हुई'-यह कहकर कोशा एक आसन पर बैठ गई।
सुदास खड़ा का खड़ा रहा। चित्रा ने उसे एक उत्तेजक पान खिलाया था। उसका प्रभाव होने लगा। उसका रक्त तीव्र बना....विह्वलता तेज हुई। उसमें यौवन का ऐसा उभार आया कि वह रूपकोशा को बाहुपाश में जकड़ने के लिए व्याकुल को उठा।
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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