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कोशा के चित्त में स्थूलभद्र की छाया उभर आयी। उसने सोचाइस प्रसंग का उपयोग कर ही लेना चाहिए। वह कुछ संकोच और लज्जाभरे शब्दों में बोली- 'कृपालु! आप रोष न करें तो....'
राजा हंसते हुए बीच में ही बोल उठे- 'बेटी ! पुत्री पर पिता के प्राणों में कभी रोष नहीं होता। आज जो तू मांगेगी, वह मिलेगा।'
'राजन् ! आपकी प्रसन्नता को मैं अपना अहोभाग्य मानती हूं। केवल एक ही इच्छा है-मेरे नारी जीवन की सफलता के लिए मुझे एक जीवसाथी चाहिए। उसके खोज की मुझे स्वतन्त्रता होनी चाहिए।' कोशा ने नीची आंखों से कहा।
यह सुनकर कोशा की मां, महादेवी, सुप्रभा और सम्राट्-सभी आश्चर्यचकित रह गए।
सम्राट् ने कहा- 'तेरी मनोकामना पूर्ण हो।'
कोशा ने साम्राज्ञी के चरणों में नमस्कार किया। साम्राज्ञी ने उसके मस्तक पर हाथ रखते हुए कहा- 'तेरी मनोकामना पूर्ण हो।' सब वहां से विदा हो गए।
थोड़े समय बाद रथपति सुकेतु आया और रूपकोशा का अभिनन्दन करते हुए एक रत्नजड़ित हार उपहार स्वरूप देकर चला गया।
अब अनेक श्रेष्ठिपुत्र, सार्थवाह, छोटे-बड़े राजा, राज्यकर्मचारी, सेनानायक आने लगे और रूपकोशा के चरणों में उपहार चढ़ाने लगे।
एक पैंतीस वर्ष का युवक सुदास आया। वह बौद्ध धर्मावलम्बी था। पाटलीपुत्र में वह बहुत बड़ा धनपति माना जाता था। उसने रूपकोशा को वज्र की अंगूठी देते हुए कहा- 'देवी आपका यश चारों ओर फैले। मैं आपके दर्शनार्थ जब चाहूं, तब आ सकू, ऐसी आप आज्ञा दें।'
रूपकोशा ने सहज भाव से कहा-'आपकी अभिलाषा कभी-कभी पूरी हो सकती है।'
आर्यस्थूलभद्र और कोशा
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