________________
सुदास प्रसन्न हृदय से उठा.... घर गया..... उसके प्राणों में एक आकांक्षा जागी-रूपकोशा को अपनी बनाने की ।
रूपकोशा के नयन अपने मन में अंकित स्थूलभद्र की मूर्ति को साकार करने के लिए लालायित थे। वह सोच रही थी कि क्या वे मेरे नृत्य से प्रसन्न नहीं हुए? क्या वे हृदयहीन कलाकार हैं ?
इतने में ही......
स्थूलभद्र चाणक्य के साथ आ पहुंचे।
स्थूलभद्र ने पुष्प की माला अर्पण करने के लिए हाथ आगे करते हुए कहा - 'देवी ! एक कलामूर्ति का अभिनन्दन करती हुई एक पुष्पमाला भी भाग्यशालिनी हुई है ।' रूपकोशा ने संकुचित नयनों से माला स्वीकार की । उसने कहा- 'भारतवर्ष के समर्थ वीणावादक का यह उपहार मेरे जीवन में सौरभ प्रस्फुटित करेगा।'
कोशा ने स्थूलभद्र की ओर प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखते हुए कहा - 'भंते! आप एक बार मेरे यहां पधारें ।'
'हां, कभी आ जाऊँगा ।'
स्थूलभद्र और चाणक्य वहां से विदा हो गये ।
कोशा ने दोनों का आभार माना।
रूपकोशा की मनोकामना आज पूर्ण हुई। उसका श्रम काफूर हो गया । वह अपने अस्तित्व को ही भूल चुकी थी । हर्ष और आनन्द से उसका
1
मन छलक उठा ।
आज मिलन का प्रथम क्षण था ।
आज कोशा का अंग-अंग नाच रहा था ।
कोशा ने अपनी परिचारिकाओं से कहा- 'आज इच्छा हो रही है कि भवन के प्रत्येक कर्मकर को तृप्त कर दूं । जाओ, इसकी व्यवस्था करो।' चित्रा ने सारी तैयारी की।
कोशा ने भवन के सभी व्यक्तियों को यथेष्ट उपहार दिए ।
कोशा के उत्साह को देखकर मां ने सोचा- आज कोशा विजय का उल्लास व्यक्त कर रही है।
६३
Jain Education International
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org