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उस पतली डोरी पर अब रूपकोशा नृत्य की अनेक भाव-भंगिमाएं प्रस्तुत कर रही है। गति में त्वरा है। रेशमी डोरी पर भी उसके नूपुर की झंकार स्पष्ट सुनाई दे रही है। लग रहा था मानो उसके कमल जैसे चरण रेशमी डोरी से चिपक गए हों। उसकी गति में विद्युत् की तीव्रता थी।
नीचे खड़े युवक मद्य का पात्र ऊपर कर रहे थे। कोशा उनका तिरस्कार करती हुई एक रज्जु से दूसरे रज्जु पर जा रही थी।
दीपक राग का उद्दीपन! स्थूलभद्र ने कहा- 'कितना सुन्दर ! मुझे बहुत पसन्द आ रहा है।' 'तुझे.....?' 'हां।'
'कोशा के नृत्य में कामोद्दीपन है...तेरी विरागी आत्मा को...' बीच में ही स्थूलभद्र बोल उठा-'विरागी का जन्म इसी कला से हुआ है।'
'ओह ! नया तत्त्वज्ञान !' कहकर चाणक्य हंस पड़ा। तत्पश्चात् कंसवध का नृत्य हुआ। सारी परिषद् आश्चर्यचकित रह गई।
धन्य साधना! धन्य कोशा! धन्य राजनर्तकी! -ये प्रचण्ड नारे प्रभात का स्वागत करने के लिए उन्मुक्त हुए।
राजप्रासाद पर बैठे हुए पक्षी गण उषा का स्वागत करने की तैयारी करने लगे।
देवी कोशा का जनता के सम्मुख पहला नृत्योत्सव पूरा हुआ। प्रत्येक प्रेक्षक उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करता था। सब यही कहते-रूपकोशा बेजोड़ है। ढाई सौ वर्ष पहले हुई आम्रपाली को भी भुला देने वाली है। इसकी जैसी कला है, वैसा ही रूप है और वैसा ही गौरव है।
मगधपति घननन्द ने उसे राजनर्तकी का उच्च पद प्रदान किया और कहा- 'मुझे विश्वास है कि तेरे हाथों में भारत की ललितकला लोकभाग्य होगी। आज मैं परम प्रसन्न हूं। तू जो इच्छा हो मांग।'
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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