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________________ रूपकोशा अभिनव रज्जुनृत्य करने वाली थी। चारों ओर प्रेक्षक रंगमंच पर गिरे हुए परदे के उठने की प्रतीक्षा कर रहे थे। परदा उठा। दूर, बहुत दूर दो झोंपड़ियां दिख रही थीं। झोंपड़ियों के सामने विशाल प्रांगण था। वहां आठ फुट ऊंची रेशमी रज्जु एक छोर से दूसरे छोर तक बंधी हुई थी। सूर्यास्त का-सा आभास हो रहा था। एक झोपड़ी में से तीन-चार युवक हूण जाति के वेश में बाहर आये। उनके हाथों में काष्ठपात्र थे। उनमें मदिरा थी। वे नृत्य करते हैं, मदिरा पीते हैं और पागल की भांति घूमते हैं। दूसरी झोंपड़ी से तीन युवतियां निकलती हैं। तीनों वल्कल पहने हुई हैं। एक गौर वर्ण वाली है और दो श्याम । मदिरापान से मस्त बने युवक-युवतियों की ओर आते हैं। उनके समक्ष मदिरापात्र रखते हैं, किन्तु युवतियां उनके मदिरापात्र की अवमानना करती हैं। युवक हताश होते हैं और तब युवतियां मंद-मंद हास्य बिखेरती हैं। दूर की एक झोपड़ी में से नूपुर की ध्वनि आती है। सब उस ओर देखने लग जाते हैं। हूण कन्या के वेश में रूपकोशा बाहर आती है। उसका मांसल शरीर, मदमाता लावण्य और उभरता यौवन सबको अपने पाश में जकड़ लेता है। सभी प्रेक्षकों के प्राण कोशा के सौन्दर्य और यौवन पर मर-मिटने के लिए उतावले हो उठे। उनकी दृष्टि कोशा की चंचल गति को देख रही है। हूण युवक और युवतियां हूण सुन्दरी के पास जाते हैं। वह सबको डराकर रज्जु की ओर जाने का इशारा करती है। वे सब जाते हैं, किन्तु रज्जु को देख नीचा सिर किये लौट आते हैं। रूपकोशा हिरणी की भांति कूदती हुई, नाचती हुई जाती है और रज्जु पर चढ़ जाती है। यह दृश्य देखकर प्रेक्षक भयभीत हो जाते हैं-अरे! यह इस रज्जु से गिर पड़ी तो....? यदि रज्जु टूट जाए तो....? कोशा नि:शंक उस पर चढ़ी हुई है। आर्य स्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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