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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन थोड़े होते हैं...''आशागतः प्रतिप्राणे यत्र विश्वपणूपमम् ।" शेक्सपियर ने ठीक ही कहा है कि 'इस संसार में सबसे बड़ा भ्रम यह है कि पैसा ही हमें सुखी बना सकता है। स्वर्ण तो मनुष्य की आत्मा के लिये सबसे गहित विष है।" दुर्योधन ने भी अपने मामा शकुनि से कहा था कि “सोना अग्नि के समान चमकदार तो होता है परन्तु अग्नि से भी अधिक जलन पैदा करता है, क्योंकि अग्नि तो छूने पर ही जलाती है जबकि युधिष्ठिर के पास भेंट में प्राप्त सोने को देखकर मुझे जलन पैदा होती है।"
सच्चे सुख का स्रोत आत्मा के भीतर है-संतोष में है, अपरिग्रह में है-"जब आवे संतोष धन, सब धन भूरि समान ।" असल में आसक्ति और अपरिग्रह हमें बंधन में डालता है। आसक्ति की जननी ही मोह या मूर्छा है। वाह्य परिग्रह मानसिक परिग्रह (आसक्ति) से संभव नहीं है। फिर परिग्रह हिंसा को जन्म देता है। भगवान महावीर ने अपरिग्रह व्रत पर इसलिये विशेष बल दिया कि वे जानते थे कि आर्थिक विषमता और आवश्यक वस्तुओं का अनुचित संग्रह सामाजिक जीवन को विघटित कर देने वाला है। धन का सीमांकन स्वस्थ समाज-निर्माण के लिये अनिवार्य है। धन सामाजिक व्यवस्था का आधार होता है और उसके कुछ हाथों में सीमित होने से समभाव का सम्पूर्ण विकास नहीं हो पाता है । जीवनोपयोगी वस्तुओं के संग्रह से समाज में अभाव की स्थिति पैदा करता है। पूंजीवाद का यही अन्तर्विरोध है । साम्राज्य लिप्सा की भावना के पीछे भी परिग्रह की भावना है।
यह दुर्भाग्य है कि आज जब मानवता का लगभग तृतीयांश भाग भूख एवं अभाव से त्रस्त है, वहीं दूसरी ओर वैभव और विलास का प्रगल्भ प्रदर्शन होता है । संयुक्त राष्ट्र अमरीका में अन्नादि के दाम नहीं गिरे, इसके लिये करोड़ों मन अन्न नष्ट कर दिये जाते हैं । दूध के दाम नहीं गिरे, इसके लिये लाखों गायें काट दी जाती हैं। यह सब सांस्कृतिक विकृति है जिसके कारण विश्व शांति और विश्व भ्रातृत्व को खतरा होता है। .. इसलिये अपरिग्रह का विचार और आचार केवल परमार्थ-साधना का विषय नहीं, यह तो व्यक्तिगत जीवन के सच्चे सुख एवं स्वस्थ समाजसंरचना के लिये आवश्यक है। पूंजीवाद व्यक्तिगत परिग्रहवाद है तो साम्यवाद भी राज्य का परिग्रहवाद है । हमें इन दोनों से परे किसी स्वस्थ सामाजिक संरचना के विषय के सोचना चाहिये । मेरी विनम्र राय में गांधीजी का ट्रस्टीशिप का विचार हमें एक दिशा निर्देश दे सकता है जहां व्यक्तिगत स्वामित्व एवं राज्य के स्वामित्व दोनों का निराकरण किया जाता है। साथ
Bombay,
१. Amrtchandra, Purusartha Siddhupayaya,
Raichandra Jain Mala, p.111.
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