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आधुनिक युग एवं अपरिग्रह वाद है और भौतिकवादी जीवन मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में संभवतः तृष्णा और आसक्ति पर विजय संभव नहीं है क्योंकि जब आवश्यकता की वृद्वि की पूर्ति के राग में ही रत रहना मानव जीवन का लक्ष्य है तो अपरिग्रह आदि की भावना उनके लिये एक दार्शनिक विसंगति होगी। शायद मार्क्सवाद अभाव और अकिंचनता निवारण की पावन भावना से प्रभावित होकर यह भूल जाता है कि भौतिक सुख भोग एवं भावश्यकताओं की सीमा नहीं है। लोभ से लोभ बढ़ता जाता है। काम भोग से कामतृप्त नहीं होता है। ययाति वृद्धावस्था में जवानी प्राप्त कर भी तृप्त नहीं हुए बल्कि काम तीव्रतर होता गया। जिस प्रकार अग्नि में घी डालने से अग्नि शान्त नहीं होती है, उसी प्रकार भौतिक सुखोपभोग से शांति एवं तृप्ति नहीं मिलती है। यही कारण है कि सुकरात ने कहा था हम यदि सुख चाहते हैं तो हमें निर्णय करना होगा कि हम कितनी चीजों के बिना अपना काम चला सकते हैं--(How many things we can do without ?) उपमोगक्तावादी संस्कृति के विरुद्ध आज पाश्चात्य जगत् में भी एक अभियान चल रहा है जब स्वैच्छिक सादगी एक जीवन-पद्धति के रूप में अपनायी जा रही है। इस सदी के पांचवें दशक में यह आन्दोलन शुरु हुआ था और आज कम से कम ५० लाख अमरीकी नागरिक तड़क-भड़क की जिन्दगी को छोड़ स्वैच्छिक रूप से सादगी को अपना चुके हैं । आज के असीमित आर्थिक विकास को शंका की दृष्टि में देखने लगे हैं। शायद वे समझ रहे हैं कि असीमित ढंग से बढ़ती हुई उपभोक्ता संस्कृति का बोझ हमारी यह धरती संभाल नहीं सकेगी।'
टालस्टाय ने अपनी कहानी-(How Much Land Does a Man Require ?.) के माध्यम से बताने का प्रयत्न करते हैं कि व्यक्ति असीम तृष्णा के पीछे भले ही पागल होकर अपने जीवन की बाजी लगा देता है किन्तु अन्त में उसके शव को दफनाने भर के लिये ही भू-भाग उसके उपयोग में आता है। किसी वस्तु के प्रति आसक्ति होने से उस वस्तु के विछोह में दुख का अनुभव होता है परन्तु आसक्ति नहीं होने पर दुःख नहीं होता है। यह भ्रान्त धारणा है कि सुख बाहरी वस्तुओं में है। मनुष्य की आसक्ति और आकांक्षा जिस वस्तु के लिये संग्रह ही होती है, उसको पाने के लिये चिंता, बैचैनी आदि होती है किन्तु जैसे ही वह उसे प्राप्त कर लेता है, तत्काल उससे भिन्न अन्य वस्तु पाने की इच्छा हो जाती है। इस प्रकार इच्छाओं का क्रम चलता रहता है । प्रत्येक प्राणी की आशा (इच्छा) का गड्ढा इतना बड़ा होता है कि उसको भरने के लिये सारे संसार के समस्त पदार्थ भी
१. Handerson, C., to “Learning to Live Frugally", Span,
New Delhi, July, 1979. p.15.
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