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आधुनिक युग एवं अपरिग्रह
८५ है उसका मोह समाप्त हो जाता है और जिसका मोह मिट जाता है उसके दुःख भी मिट जाते हैं।' तृष्णा असीम है और भौतिक साधन सीमित हैं । अतः सीमित साधनों से असीमित तृष्णा की पूर्ति हो नहीं सकती। तृष्णा ही परिग्रह का मूल है। आसक्ति ही परिग्रह है। आसक्ति की ही दूसरी संज्ञा लोभ है और लोभ सद्गुणों का विनाशक है। इस अनासक्ति को बौद्ध एवं वैदिक परंपराओं ने भी स्वीकार किया है । गीता तो अनासक्ति-योग का काव्य है ही। गीता के अनुसार आसक्ति के कारण ही मनुष्य काम, भोग की पूर्ति के लिये अन्यायपूर्वक धन-संचय की चाह करता है । संक्षेप में अपहरण, शोषण एवं संग्रह आदि की वृत्तियों के मूल में आसक्ति ही हैं । इसीलिये गीता में आसक्ति और लोभ को नरक का द्वार कहा है। इसीलिये गीता अनासक्त या निष्काम कर्म का उपदेश देती है। भगवान बुद्ध की दृष्टि में भी तृष्णा ही दुःख है। आसक्ति ही बंधन है। जो भी दुख होता है वह सब तृष्णा के कारण ही होता है। आसक्ति का क्षय ही दुखों का क्षय है। जो व्यक्ति तृष्णा को वश में कर लेता है उसके दुख उसी प्रकार समाप्त हो जाते हैं जैसे कमल पत्र पर रहा हुआ जल बिन्दु शीघ्र ही समाप्त हो जाता है । तृष्णा से दु:ख वैसे ही बढ़ते हैं, जिस प्रकार खेतों में वीरण घास गढ़ती रहती है ।" यों तो बौद्ध दर्शन में मुख्य रूप से भव तृष्णा, विभव तृष्णा और काम तृष्णा हैं लेकिन सब भेद-उपभेद मिलाकर तृष्णा के १८ भेद माने गये हैं । बुद्ध की दृष्टि में भी परिग्रह के मूल में भी यही तृष्णा या आसक्ति है ।
यह ध्यान देने की बात है कि जहां जैन, बौद्ध एवं वैदिक परंपराओं ने अनासक्ति को व्यक्तिगत जीवन का सर्वमान्य मूल्य स्वीकार किया है, वहां
१. उत्तराध्ययन सूत्र, ३२, ८ । २. उत्तराध्ययन सूत्र, ८, ३८ । ३. दशवैकालिक सूत्र, ६, २१ । ४. वही, ८, ३८ । ५. गीता, १७, १२ । ६. गीता, १६, १६ । ७. संयुक्त निकाय, २, १२, ६६; १, १,६५। ८. सूत निपात, ६८, ५ । ९. वही, ३८, ५७ । १०. धम्मपद, ३३६ । ११. वही, १८६। १२. महामिद्देसपालि, १, ११, १०७ ।
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