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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन
की पर्याप्त भर्त्सना है।'
मनोवैज्ञानिक रूप से भी यदि हम विचार करें तो परिग्रही-व्यक्ति जितनी सुरक्षा का अनुभव करता है उससे अधिक असुरक्षा का ही अनुभव करता है। उसकी संपत्ति पर चोरों-डकैतों और असामाजिक तत्त्वों के अलावे समाज के अकिंचन लोगों की आंखें लगी रहती हैं। फिर संपत्ति के अपहरण से व्यक्ति को आक्रोश भी होता है और कभी तो धनशोक", "पुत्रशोक" से भी बढ़ कर होता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि परिग्रह की कोई सीमा नहीं होती एवं उसमें सदा एक चिरन्तन अतृप्ति की भावना रहती है। यह एक कष्टकारक प्रसंग होता है। अतः परिग्रह से मनोवैज्ञानिक सुख भी प्राप्त नहीं होता है।
जिस प्रकार अहिंसा का वैचारिक आधार अनाग्रह या अनेकांत दृष्टि है, उसी प्रकार इसका सामाजिक आधार अनासक्ति या अपरिग्रह है। व्यक्तिगत जीवन में हम जिसे अनासक्ति कहते हैं, सामाजिक जीवन में वही अपरिग्रह हो जाता है। असल में देखा जाए तो अपरिग्रह, अस्तेय और बहुत हद तक ब्रह्मचर्थ व्रत भी अनासक्ति के ही व्यावहारिक रूप हैं। व्यक्तिगत जीवन में आसक्ति दो रूपों में अभिव्यक्त होती है-परिग्रह-भाव एवं भोग-भावना, जिनके वशीभूत होकर वह दूसरों के अधिकार की वस्तुओं का अपहरण करता है । इस प्रकार आसक्ति बाह्यतः, तीन रूपों में होती है(१) अपहरण या शोषण, (२) आवश्यकता से अधिक परिग्रह या संग्रह
और (३) भोग । केवल हत्या या रक्तपात ही हिंसा नहीं है, परिग्रह भी हिंसा ही है क्योंकि बिना हिंसा (शोषण) के संग्रह असंभव है। संग्रह के द्वारा दूसरों के हित का हनन होता है और इस रूप में परिग्रह हिंसा है। अपरिग्रह बाह्य-अनासक्ति है, अनाशक्ति आंतरिक अपरिग्रह है। इसी प्रकार समाज या राष्ट्र की संग्रह एवं शोषण-वृत्ति ने मानव जाति को अपार कष्टों में डाला है।
यही कारण है कि जैन परम्परा ने समविभाग और समवितरण को सामाजिक एवं आध्यात्मिक साधना का आवश्यक अंग माना है। अनासक्ति की भावना को मूर्त रूप देने के लिये गृहस्थ जीवन में परिग्रह और श्रमण जीवन में परिग्रह के साथ त्याग के निर्देश हैं। दिगम्बरत्व शायद आत्यन्तिक अपरिग्रही जीवन का सजीव प्रमाण है। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार समग्र जागतिक दुखों का मूल कारण तृष्णा है। जिसकी तृष्णा समाप्त हो जाती
१. कुरान शरीफ, ३४, ३५; ३४; ४६-५०; ३५,१; ३५; ५-६; ३५,
१०; ३५, १९-२२; २७-२८; ३२ । २. उत्तराध्ययन सूत्र, १७, ११; प्रश्नव्याकरण सूत्र, २, ३ ।
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