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आधुनिक युग एवं अपरिग्रह
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अपने या बाल-ब -बच्चों के काम आने के ख्याल से एक चिथड़ा भी बटोर रखता है और दूसरे के जरूरत की होते हुए भी इस्तेमाल नहीं करने देता वह परिग्रही है । संक्षेप में परिग्रह या अपरिग्रह एक भावना है । संपत्तिवान भी यदि अपने को संपत्ति का ट्रस्टी मानता है तो वह अपरिग्रही है एवं अकिंचन व्यक्ति भी लोभ में फंसा है तो वह परिग्रही है । अतः परिग्रह तृष्णा और लोभ है, अपरिग्रह संतोष और त्याग की वृत्ति है ।
अपरिग्रह केवल व्यक्तिगत नैतिक सद्गुण ही नहीं है, इसका सामाजिक आधार भी है । सर्वप्रथम तो संग्रह व्यक्ति से ही नहीं समष्टि से ही संभव है । यदि समाज असहयोग करे तो व्यक्ति संपत्ति का संग्रह करना तो दूर रहा, उसका अर्जन करने में भी अक्षम रहेगा । शायद इसी को ध्यान में रखकर मार्क्स ने कहा है कि पूंजी एक सामाजिक शक्ति है । ( Capital is a social power) दूसरी तरफ परिग्रह के कारण सामाजिक विषमता बढ़ती है और फिर उससे इर्ष्या-द्वेष, कलह आदि उत्पन्न होते हैं । यही कारण है कि धर्माचायों ने दान को प्रतिष्ठित किया है । इस्लाम में जकात इसाई धर्म में चैरिटी एवं हिंदू धर्म में दान की महिमा है । शंकराचार्य ने तो "दानं संविभागः " कह ही दिया है जिसका आधार लेकर विनोवा जी ने "भूदान, संपत्तिदान, जीवन दान आदि की परम्परा चलायी है । “सबै भूमि गोपाल की " या " संपत्ति सब रघुपति के आही" जब कहा जाता है तो अपरिग्रह - धर्म परिपुष्ट होता । केवल जमीन एवं जायदाद ही नहीं हमारा जीवन भी अपने लिये नहीं बल्कि समाज के लिये है । यही भावना लेकर विनोबाजी एवं जयप्रकाशजी ने "जीवन दान" का अभियान प्रारम्भ किया था जो अपरिग्रह - व्रत की पराकाष्ठा है । गांधीजी का ट्रस्टीशिप या विनोबाजी की विश्वस्तवृति का सिद्धांत भी अपरिग्रह व्रत की सामाजिक साधना है । जिस समाज में अपरिग्रह व्रत का प्रतिपालन होगा, वहां पूंजीवाद की समस्या ही नहीं रहेगी और फिर उसके संघर्ष आदि के प्रश्न ही निरर्थक होंगे । किन्तु यदि समाज में व्यक्तिगत परिग्रह बढ़ेगा तो विषमता भी बढ़ेगी, शोषण भी होगा और फिर वर्ग संघर्ष या रक्तिम संघर्ष अनिवार्य है ।
आध्यात्मिक दृष्टि भी अपरिग्रह के पक्ष में है । जब सभी संपत्ति ईश्वर की है तो उसे केवल अपना समझना ईश्वर -द्रोह है । इसीलिये उपनिषद् त्याग के पश्चात् भोग - " तेन त्यक्तेन भुंजीथा: " और गीता में "यज्ञार्थात्कर्मणो" का आदेश देती है । बाइबिल में तो कहा ही गया है कि " सूई की छेद से एक ॐट का निकल जाना संभव है किन्तु परिग्रही व्यक्ति ईश्वर के पास हरगिज नहीं पहुंच सकता ।" इस्लाम में भी परिग्रह
१. गीता, ३,९ ।
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