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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन है।' लोभ पर गदा प्रहार के लिये ही अपरिग्रह व्रत की परिकल्पना है । अपरिग्रह को भावात्मक शब्दावली में हम संतोष भी कह सकते हैं जिसका महत्त्व शास्त्रों में पर्याप्त रूप से वर्णित है। योगशास्त्र' ने अपने पंच यमों में यदि अपरिग्रह को स्थान दिया है तो नियमों में संतोष का भी उल्लेख किया है । बौद्ध पंचशील एवं मनु स्मृति में स्पष्टत: अपरिग्रह का उल्लेख नहीं है किन्तु "अस्तेय" को दोनों ने माना है।
जिसकी हमें आज आवश्यकता नहीं है उसे भविष्य की चिंता से संग्रह कर रखना ही परिग्रह है। ईश्वर में अखंड आस्था रखने वाला परिग्रही हो नहीं सकता क्योंकि उसकी मान्यता है कि जिस ईश्वर ने जन्म दिया है, जो आज हमारी जीवन रक्षा कर रहा है, भविष्य में भी वही हमारा संरक्षण करेगा । जिस वस्तु की जब सच्ची आवश्यकता होगी तब वह अवश्य प्राप्त हो जायेगी । इसलिये उसे संग्रह के प्रपंच में पड़ने की आवश्यकता नहीं। यह है सच्ची आस्तिकता और नैतिक नियमों में विश्वास । किन्तु इसका अर्थ पुरुषार्थहीनता से परिपूर्ण भाग्यवाद नहीं होता है। जो शक्तिमान होते हुए भी श्रम नहीं करता उसकी आवश्यकताएं परमेश्वर यों ही पूरी नहीं कर देता । परिश्रम करने की जिसे इच्छा नहीं, जो उसे मुसीबत समझता है, उसके अन्दर तो यह विश्वास ही नहीं जम सकता कि भगवान सबकी आवश्यकताएं पूरी करने वाला है। वस्तुतः वह तो अपनी परिग्रह-शक्ति पर ही भरोसा रखता है। फिर बौद्ध एवं जैन तो श्रमणसंस्कृति की धारायें हैं जो आत्म-पुरुषार्थ के धर्म हैं, इनमें तो ईश्वर जैसे अलौकिक तत्व के प्रति परमुखापेक्षी होने की भी आवश्यकता नहीं है। फिर इसका यह भी अर्थ नहीं कि समाज में रहकर अपरिग्रही-व्रती अपने पास आयी हुई वस्तुओं को कहीं रास्ते में फेंक दे या खराब होने दे। वह अपने को उन वस्तुओं का रक्षक समझे और उनकी पूरी हिफाजत रखे, वह पल भर भी अपने को उन वस्तुओं का मालिक न माने । अतः जिन्हें उनसे काम लेने की आवश्यकता हो उन्हें उनका इस्तेमाल करने देने में बाधक न हो।
१. श्रीमद्भगवद्गीता, १६, २१ त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
काम क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयंत्यजेत् ॥ श्रीमद्भागवत महापुराण, ७, ११, ८-१२---संतोषः समदृक सेवा । २. योगसूत्र, २, ३० । ३. अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं मादक द्रव्य निषेध । ४. मनु स्मृति घृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौर्यमिन्द्रियनिग्रहः ७-९२ ५. मश्रुवाला, कि० घ०, गांधी विचार दोहन, दिल्ली : सस्ता साहित्य
मंडल, दसवां संस्करण, १९६८, पृ० २०-२१ ।
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