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आधुनिक युग एवं अपरिग्रह
है, वैसा सुख चक्रवर्ती को भी नहीं मिलता।' परिग्रह-त्याग से इन्द्रियां वश में होती हैं । संग्रह करना भीतर रहने वाले लोभ की झलक है। परिग्रह दो प्रकार का है-आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर परिग्रह के १४ भेद हैं एवं बाह्य परिग्रह के १० भेद हैं ।५ सजीव या निर्जीव स्वल्प वस्तु का भी जो परिग्रह रखता है अथवा दूसरे को उसकी अनुज्ञा देता है वह दुःख से मुक्त नहीं होता है। इसका अर्थ है कि परिग्रह में ममता और आसक्ति है।
"मूर्छा परिग्रह है"--ऐसा कहा गया है। मूच्छीँ का अर्थ है किसी भी वस्तु में अपनत्व का अनुभव करना या उसे अपनी मालिकी समझना । यह ममता या अपनत्व की भावना रागवश होता है। फिर उसके अर्जन, संचय एवं संग्रहण के लिये वह निरंतर प्रयत्नशील रहता है । इन बाह्य पदार्थों के ऊपर स्वामित्व स्थापित करने के लिये और ऐसा करके अपने राष्ट्रवासियों की सुख-सुविधा बढ़ाने के लिये राष्ट्रों के बीच युद्ध होते हैं । व्यापार-विस्तार की प्रतियोगिता एवं अपने उत्पादित वस्तुओं की बिक्री के लिये बाजारों की खोज और होड़ ही आज के विश्व की सबसे दुर्दान्त समस्या है। संक्षेप में इन सब प्रवृत्तियों की तह में मूच्र्छा ही काम करती है। जैन दार्शनिकों ने बड़ी ही सूक्ष्मता से अपरिग्रह व्रत के अतिचारों को रखा है ताकि व्यावहारिक जीवन में अपरिग्रह की साधना में व्यक्ति को दिशानिर्देश मिल सके । क्षेत्रवास्तु, हिरण्य-सुवर्ण, धन-धान्य, दासी-दास, एवं कुप्य-भांड के प्रमाणों का अतिक्रम । ये सब परिग्रह-परिमाण व्रत के पांच अतिचार हैं। अतिचार के साथ-साथ अपनी ग्रहवत की भावनाओं की व्याख्या में भी जैन चिंतकों ने स्पर्श, रस, गंध, वर्ण एवं शब्द के प्रति राग-द्वेष वर्णन की बात रखी है। जैन दर्शन के अतिरिक्त भी अपरिग्रह का महत्त्व भारतीय चिंतन में स्वीकार किया गया है। वेद-उपनिषद् में "तेन त्यक्तेन भुंजीथाः" एवं "मा कस्य स्विद् धनम्"" कहकर परिग्रह-त्याग का मार्ग प्रशस्त किया गया है । असल में काम, क्रोध और लोभ को नरक का द्वार बताया गया
१. वही, गाथा-१४५, पृ० ४६ । २. भगवती अराधना, (शिवकोटी आचार्य, सोलापुर, १९३५, गा-१११८ ३. दशवकालिक, ६/१९ ४. भगवती अराधना (शिवकोटी आचार्य), गा-१११८ ५. वही, गाथा-१११९ ६. समणसुतं, गाथा-१४१ । ७. उमास्वामी, तत्वार्थ सूत्र, ठ,१७ ; मूर्छा परिग्रहः ८. ईशावास्योपनिषद् श्लोक-१,
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