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________________ ८० जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन चितमंतमचितं वा परिगिझ किसामवि । अराणं वा अणुजाणाइ एवं दुक्खा ण मुच्चई ॥' सुधर्मा ने कहा-"जो मनुष्य चेतन या अचेतन पदार्थों में तनिक भी परिग्रह-बुद्धि रखता है और दूसरों के परिग्रह का अनुमोदन करता है, वह दुख से मुक्त नहीं हो सकता।" हिंसा का कारण परिग्रह है। कर्मबंध के मुख्य हेतु दो हैं-आरंभ और परिग्रह, राग-द्वेष, मोह आदि भी कर्म-बंध के हेतु हैं किन्तु वे भी आरंभ और परिग्रह के बिना नहीं होते। इन दोनों में भी परिग्रह गुरुतर कारण है। परिग्रह के लिये ही आरंभ किया जाता है। जंबू ने आर्य सुधर्मा से पूछा-"भगवान महावीर की वाणी में बंधन क्या है और उसे कैसे तोड़ा जा सकता है ? सुधर्मा ने उत्तर दिया--"परिग्रह बंधन है। बंधन का हेतु है-ममत्व ।"3 प्राणातिपात आदि पांच आश्रबों में भी परिग्रह को गुरुतर माना गया है जिससे विरति की जाती है।' चूर्णिकार ने उसे वैर कहा है। हिंसा करना, हिंसा करवाना और हिंसा करने वाले का अनुमोदन करना-ये तीनों गलत हैं। परिग्रह के लिये हिंसा होती है । जहां परिग्रह है वहां हिंसा का होना निश्चित है, इसलिये परिग्रह और हिंसा-ये दोनों परस्पर संबंधित हैं। ये एक ही वस्त्र के दो आंचल हैं । ये दोनों बंधन के कारण हैं । यद्यपि राग और द्वेष भी बंधन के कारण हैं, किन्तु वे भी परिग्रह और हिंसा से उत्तेजित होते हैं, इसलिये परिग्रह और हिंसा बन्धन के पार्श्ववर्ती कारण बन जाते हैं । आगम में अपरिग्रह को अत्यधिक महत्व दिया गया है क्योंकि इसकी मान्यता के अनुसार 'जीव' परिग्रह से निर्मित हिंसा करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है और अत्यधिक मूर्छा करता है।' संपूर्ण परिग्रह से मुक्त, शीतीभूत, प्रसन्नचित्त श्रमण जैसा मुक्ति सुख पाता २. सूयगडो १ (सम्पा.) युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं, १९८४, १,१,२ ३. वही, १,१,२-३ ४. वही, १,१,४ ५. चूणि, पृ० २१, २२-'आरम्भ-परिग्रहो बन्ध हेतु' पाणातिवातादि आसवाणं परिग्गही गुरुवतरी त्ति कातुं तेण पुव्वं परिग्गहो वुच्यति । ६ चूणि, पृ० २२-विरज्यते येन तद्वरम् । ७. समणासुतं, सर्वसेवा संघ, वाराणसी, गाथा-१४०, पृ० ४५, संगनिर्मित मारइ , भणइ अलीअं करैइ चौखिर्क । सैवइ मैहुण मुर्छ, अप्परिमाणं कुणइ जीवो ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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