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________________ जैनदर्शन में अद्वैत की प्रवृत्तियां उपाधियों के क्षय होने पर ही होता है।' यहां तक हमें एक विशिष्ट सापेक्षतावाद का दर्शन होता है। किसी सर्वज्ञ को स्याद्वाद की सीमाएं मर्यादित नहीं करतीं। जीव स्वभावतः सर्वज्ञ है। इसमें ज्ञानान्ध करने वाला मोह का आवरण उठ जाता है । अतः सापेक्षतावाद के सिद्धांत में भी निरपेक्ष ब्रह्म की कल्पना निहित है। विभिन्न नयों द्वारा उपलब्ध ज्ञान का योगांक मात्र ही हमें परम सत्य को नहीं बतला सकता है । सत्य उन सब पहलुओं का अव्यवस्थित योग नहीं बल्कि समन्वयशील समूह है। डा० राज महोदय का विचार है कि जैनों का सापेक्षतावाद ज्ञान सापेक्षतावाद है। जहां सत्ता है, उसका स्वभाव भी निश्चित है, हां उसे हम दूसरी तरह से भी समझ सकते हैं। किन्तु सर्वज्ञ के लिए सापेक्ष नहीं बल्कि निरपेक्ष एवं अनीपाधिक ज्ञान होगा। अतः सापेक्षवाद की परिणति निरपेक्षवाद में निश्चित ही है। किसी क्षण हम केवली के अपरोक्षानुभूति को स्वीकार कर लेते हैं, तो हमारे सामने असीम निरपेक्ष अद्वैत आ ही जाता है। ७. कारणवाद ___ जैन तत्त्व ज्ञानानुकूल ही कुन्दकुन्द कारण-कार्य की अभिन्नता का अनुसरण करते हुए 'चेतन से चेतन' और 'अचेतन से अचेतन' की सृष्टि का सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं। फिर सर्व सत्ताधिष्ठान ब्रह्म में विश्वास करने वाला अद्वैत वेदांत भी कारण-कार्य अभिन्नत्व ही मानता है। जैनमत में यद्यपि जीव और अजीव परस्पर विरोधी हैं, फिर भी उच्चतर सत्ता-जगत् में उनके विरोध का शमन हो जाता है। जिस तरह मछलियों से पूर्ण सरोवर और वृक्षों से पूर्ण उद्यान भी जीवन्त दीखता है, उसी प्रकार अजीव भी जीवित दीखता है। जैन जगत में कोई भी वस्तु शुष्क, मृत, जीवहीन नहीं है।' इस दृष्टि से भी अद्वैत जैनमत के समीप ही पड़ता है। १. तुलना -५० मु० २/१०; त० अ० सू० १०/१; न्याया० २७; द्र० का० १/१ प्रमाणनय तत्वालोकालंकार--११-१९; स्था० सू०-२२६; द्र० सं०-५; राज० प्रश्नीय-१६५ २. The Review of Metaphysics. vol. VII No. 4. June 1954 p-107 ३. उपर पृ०-६९७ ४. राधाकृष्णन्—इंडियन फिलासफी, भाग-१ पृ० ३४० ५. स० सा० की भूमिका-CLVII ६. राधाकृष्णन्-ई० फि० भाग-१, पृ० ३३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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