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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन ८. उपसंहार
व्यवहार और स्वभाव से भिन्न तत्त्व भी सर्वथा एक दूसरे के विरुद्ध या एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते। यहां तो समस्त विश्व की एक सत्ता है जो द्रव्यरूप में गुण एवं पर्यायों को अपने में समवेत करता है। वस्तुतः जैन दर्शन हमें एक अखंड विश्व की ही कल्पना देता है। सबों की सत्ता है, अतः सब एक ही है। स्थानांग सूत्र में भी "एगे आए एगे लोए" कहकर इसकी पुष्टि की गयी है। किंतु अभाग्यवश जैन तत्त्व ज्ञान को इस दिशा में नहीं बढ़ने दिया गया। राधाकृष्णन ने कहा है कि जैनों का अनेकवादी यथार्थवाद अपने में एक महान असंगति है जिसकी पूर्णता अद्वैत में अनिवार्य है। चूंकि जीव एवं अजीव अन्योन्याश्रित हैं, अतः यह द्वैत अंत में अद्वैत में परिणत होगा ही। खैर जो भी हो, चाहे जैनमत को अद्वैत में परिणत किया जा सकता है या नहीं किन्तु यह तो निश्चित है कि जनमत में अद्वैतवादी प्रवृत्तियां हैं। ९०. अ० स० पृ० ११३ ९१. मुखर्जी (सतकारी)-The Jaina Philosophy of Non-absotus
tion, p-301.2 ९२. त० सू० भा०-११३५ ९३. स्था० सू० १/१, १/४ ९४. मुखर्जी (ऊपर) पृ० ३०२ ९५. राधाकृष्णन् (ऊपर)-पृ० ३४० ९६. हिरियन्ना (ऊपर)--१७२ ९७.
संकेत-सूची आ० नि-आवश्यक नियुक्ति आ० सू०-आचारांग सूत्र अ० स०-अष्ट सहस्री भ० गी०-भगवदगीता ब्र० सू०-~-ब्रह्म सूत्र बृ०–बृहदारण्यक उपनिषद् छान्दो० --छान्दोग्य श्वेत०-श्वेताश्वतर ईश-ईशावास्य कठ --कठोपनिषद् तैति०-तैतिरीयोपनिषद्
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