________________
६८
जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन उपलब्धि या "तत्" कहेंगे।' जैन साहित्य सर्वज्ञता-विषयक साहित्य से परिपूर्ण है।
सर्वज्ञत्व-सिद्धि के अनेकों प्रमाण हैं। अनुभव एवं व्यवहार भी ज्ञानक्रम और इसके विकास में सर्वज्ञता का संकेत देता है। इसलिए हेमचंद्र भी कहते हैं कि सर्वज्ञता का प्रमाण ज्ञान के क्रमिक विकास की अवश्यंभावी अंतिम परिणति है। "अनन्त धर्मात्मक वस्तु"-का तत्त्वज्ञान भी किसी असाधारण ज्ञान की ही अपेक्षा रखता है। बुद्धि प्रतिभा एवं वैयक्तिक मानसिक विषमताएं भी सर्वज्ञता की ओर संकेत करती है। धार्मिक एवं उदात्त रहस्यानुभूति भी सर्वज्ञता को सिद्ध करती है । तार्किक दृष्टिकोण भी उसके अनुकूल ही है क्योंकि हेमचंद्र के अनुसार सर्वज्ञता के विरुद्ध कोई प्रकरण नहीं है।
अन्त में हम यही कह सकते हैं कि वेदांत जिसे निषेधात्मक रूप से उपस्थित करता है, उसे ही जैन-दर्शन भावात्मक रूप से प्रतिपादित करता हैं । अतः वेदांत जहां अविद्या के साथ दुःख को सम्बद्ध करता है, वहां जैनमत सर्वज्ञता के साथ सुख प्रतिपादित करता है। वेदांत जीव को ब्रह्म से विलीन कर अविद्या का अंत करता है वहां जैन दर्शन के अनुसार व्यष्टि ही समष्टि बन जाता है। जैन मतानुसार प्रत्येक सत्ता का सम्बन्ध विश्व की समस्त सत्ताओं से है । कोई वस्तु बिलकुल असम्बद्ध या स्वतंत्र नहीं है। अतः किसी एक वस्तु का सर्वाङ्गीण ज्ञान अखिल वस्तुओं का सम्पूर्ण ज्ञान है। जैकोबी' ने उसी प्रसंग में एक जैन सूत्र का उद्धरण दिया है, वह है-"जो किसी एक को जान लेता है, वह सबको जान लेता है, और जो सबों को जान जाता है वही सबों को पूर्ण रूप से जानता है।" यहां अन्तज्ञान या आत्मज्ञान या आत्मसाक्षात्कार की पराकाष्ठा है । यह अतीन्द्रिय ज्ञान है जिसका आविर्भाव सभी
१. उपर ९९, राधाकृष्णन् ऊपर-भाग-२, पृ० ५५ २. अष्टशती, न्याय विनिश्चय, ३६१, २ षडखंडागम-२२/७८ प्र० का० मां-२५४-६०; पंच नमस्कार मंत्र-४/१०-२० जयधवला-पृ० ६६ आ० सू०-२/३/३० आ० नि० १२७, भर्तृहरि
२/३०-३२ ३. प्र० मी० (टाटिया एवं मुखर्जी)-पृ० ३० ४. ऊपर-पृ० ३४ ५. प्र० सा० की भूमिका ६. Studies in Jaina Philosophy (Tatia)P-70 ७. जैन सूत्र २ पृ० ३४ ८. तुलना-आ० सू० १/३/४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org