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________________ जैनदर्शन में अद्वैत की प्रवृत्तियां बौद्ध, जैन और वेदांतियों ने पूर्व में समर्थन किया है। प्रसिद्ध उपनिषद् व्याख्याता डाइसन ने ठीक ही कहा है, कि अपराविद्या व्यावहारिक तत्त्वज्ञान है, जो अविद्या एवं जीवजन्य स्वाभाविक वास्तववाद से प्रकट होता है। अतः व्यावहारिक एवं पारमार्थिक दृष्टिकोणों का भेद केवल वेदान्त और जैन मत में ही नहीं उपनिषद् ओर बौद्धमत में भी एकसा है। सर्वज्ञता-विचार हमारा प्रातिभासिक ज्ञान ही तात्त्विक ज्ञान की ओर संकेत करता है जो इंद्रिय-गम्य प्रमाणों के परे है। अनुभव ज्ञान की स्पष्ट अपूर्णता का विचार करके ही जैन और अद्वैत वेदांत ने तत्त्वज्ञान प्राप्ति का दूसरा ही साधन ढूंढा है । मति-श्रुत अवधि और मनःपर्यय से भी संतुष्ट नहीं होकर जैनाचार्यों ने "केवलज्ञान" या 'सर्वज्ञता' का संधान किया है, जिसे हम अतीन्द्रिय अपरोक्षानुभूति की पराकाष्ठा ही मानेंगे। जहां जीव सम्पूर्ण पर्यायों के सहित सभी द्रव्यों को जान लेता है। सर्वज्ञता में अनभिज्ञता का अभाव है।' सर्वज्ञ के लिए जीव और ज्ञान समव्यापी है। हां यह ज्ञान साक्षात, सद्यः एवं संशयहीन होता है। उसी को अद्वैत वेदांत अनुभूति, अनुभव, साक्षात्कार, सम्यकज्ञान, या सम्यक्-दर्शन' की संज्ञा देता है। सर्वज्ञता चैतन्यरूप ज्ञान-तंत्र का शीर्ष-बिन्दु है।" यह चैतन्यमय जीव के स्वाभाविक चैतन्य की पूर्ण अभिव्यक्ति है, जिसका आविर्भाव सम्पूर्ण उपाधियों के आत्यन्तिक क्षय होने पर ही होता है, और जिसे हम विशुद्ध अनुभवातीत १. इन रीली० इथीक्स भा० ९ पृ० ८४९; भाग १० पृ० ५९२ २. स० सा०-६७ ३. सि० लं० स०-१ ४. Deussen P. System of Vedanta-पृ० 100 ५. राधाकृष्णन्-ऊपर, भाग-२; पृ० ५०९ ६. मेहता-आउट लाइन्स ऑफ जैन फिलासफी-पृ० ९९ ७. त० सूत्र (आ नि०) ७७ /१० ८. त० सू० भा०-१/३१ ९. शं० भा०-१/२/८ १०. शं० भा० १/३/१३ ११. मेहता ऊपर-पृ० १०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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