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जैनदर्शन में अद्वैत की प्रवृत्तियां करते । किन्तु दर्शन में हम केवल मनोवैज्ञानिक या अनुभवगम्य व्यावहारिक जगत् का ही विचार नहीं करते। यहां हम तर्क का भी उपयोग करते हैं और तर्क को असंगतियों से असंतोष है। सामान्य व्यावहारिक अनुभूतियों के विश्लेषण करने में प्रथम हमें अनेकवाद एवं सापेक्षवाद के दशन होते हैं, और जैनमत इसके अवश्यंभावी परिणाम को प्राप्त किए बिना केवल इसी से अपने को संतुष्ट कर लेता है। अनेकवाद या व्यवहारगत वास्तविकता से किसी को कोई विवाद नहीं, किंतु यह पारमार्थिक सत्य नहीं हो सकता जिस तरह ससीम में ही असीम का अर्थ अभिप्रेत है, उसी प्रकार हम एक निरपेक्ष परम तत्त्व के बिना सापेक्षता की मान्यता कदापि स्थिर नहीं रख सकते हैं।
इस तरह हम मूलरूप से जैन एवं अद्वैत दर्शनों में अत्यधिक साम्य पाते हैं । प्रो० चक्रवर्ती ने इसका एक अद्भुत प्रमाण दिया है। उन्होंने कहा है कि जिस समय शंकर आत्मा के सम्बन्ध में गलत सिद्धांत का विवेचन करते हैं उस समय वे बौद्ध, सांख्य, योग, वैशेषिक, पाशुपत आदि का नाम लेते हैं लेकिन आश्चर्य की बात है कि उक्त सूची में जैनमत का उल्लेख नहीं करते । शायद यह समझकर कि जैन दर्शन में वेदांत की तरह ही जीवात्मापरमात्मा का ऐक्य बताया गया है ।
___ अत: शंकराचार्य जैनमत के बिलकुल समीप हैं। ब्रह्मसूत्र के अन्य भाष्यकारों की तरह शंकराचार्य यह नहीं मानते कि अविद्याग्रसित जीव एक ही है । अन्तःकरण से बद्ध प्रत्यगात्मा अथवा कूटस्थ और विशुद्ध चेतना ही ब्रह्म है, जो अनेक जीव-सा प्रतीत होता है। यह विचार अन्य वेदान्तियों में प्रचलित एक जीववाद के प्रतिकूल है। अनेक जीववादियों की भी अनेक युक्तियां हैं । उनके अनुसार जीव अनेक हैं, और जगत्भ्रम सामान्य रूप से स्थायी नहीं है। किन्तु प्रत्येक जीव अपने लिए स्वयं भ्रम की सृष्टि करता है। इसी से इस "दृष्टिवाद' का सिद्धांत फलित होता है, जिसके अनुसार विज्ञान (चेतना) ही वस्तु की सृष्टि करता है, यही नहीं वरन् विज्ञान के अतिरिक्त वस्तु है ही नहीं।" उपनिषदों में भी आत्मा और जीव में भेद किया गया है। अतः एक जीववाद सिद्धांत तो स्वयं उपनिषद् एवं ब्रह्मसूत्र के विरुद्ध ही पड़ता है। १. हिरयंन्ना-आउट लाइन्स आफ इंडियन फिलॉसफी-पृ० १७१ २. प्रो० चक्रवर्ती-सं० सा० की भूमिका P.LLX; शं० भा० १/१ ३. राधाकृष्णन् -(ऊपर जैसा)-भा० २ पृ० ६१० । ४. दासगुप्त-हिस्ट्री आफ इंडियन फिलासफी-भाग १; पृ० ४१७ ५. ऊपर जैसा-पृ० ४७८ ६. बृ० ४/३/२१; ४/३/३५; श्वे० ४/६; १/९ । ७. ब्र० सू० २/१/३२; २/१/३३
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