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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन
दी है। सत्य ही सत्ता है, और सत्ता ही सत्य है, या सत्य ही सत् या अस्तित्व है। अतः अस्तित्व ही सत्ता और सत्ता ही अस्तित्व है। बल्कि यह कहना ठीक होगा कि चूंकि सभी का अस्तित्व है, अतः सभी एक ही हैं। स्थानांग सूत्र भी “एगे साये, एगे लोये" कहकर इसका समर्थन करता है । अतः हम इस तरह अपने को उपनिषद् या वेदान्त के आध्यात्मिक अद्वैतवाद के बिलकुल समीप पाते हैं।
___ हलांकि यह सही है कि उपर्युक्त बातों के बावजूद भी जैनों का द्वैत के प्रति पक्षपात उन्हें सत्ता में भी भौतिक एवं चैतन्य सत्ता का असंगत भेद करने को बाध्य करता है । सत्य सत्य है, यथार्थ यथार्थ है । यह स्वयं पूर्ण है। यहां उस स्तर पर कर्ता एवं कर्म का कोई भेद नहीं है। किन्तु इस प्रकार के सर्वव्यापी सत्ता का विचार केवल चिदात्मक ही हो सकता है। अतः अप्रौढ़ता के कारण जैन सूत्रों में इस प्रतीयमान द्वैत का निराकरण नहीं कर सके और जीव द्रव्य एवं अजीव द्रव्य का भेद कर दिया । यद्यपि कुन्दकुन्द, उमास्वाती ऐसेऐसे अन्तरवर्ती विचारकों में इस प्रकार का प्रात्यक्षिक अन्तर नहीं मिलता।
अतः अंत में जैनमत को अद्वैत सिद्धान्त स्वीकार करना ही होगा। यद्यपि जीव और अजीव का बिलकुल विरोधी स्वभाव है, फिर भी इस विरोध के अन्तर्भूत एक एकता है जिसे हम विरोधों का सामंजस्य कहेंगे । मात्र जीव या अजीव, चेतन या जड़ वस्तु शून्य विचार है । वस्तुतः ये दोनों एक ही धातु के दो खण्ड हैं। यह वह वास्तविक सामान्य है जिसमें एक ही सत्ता साथ-साथ संयुक्त और वियुक्त दोनों है । यही अनेकता में एकता या भेद में अभेदत्व है।
- योगीन्द्र और कुन्दकुन्द आत्मा और परमात्मा का अभिन्नत्व ही बताते हैं । 'द्रव्य संग्रह' के प्रणेता नेमिचंदजी का भी यही बिचार है कि जीव का भेद या कर्तृत्व केवल व्यवहार की दृष्टि से सत्य है ।' अनेक जीववाद एक सापेक्ष विचार है जो हमें तब प्राप्त होता है जब हम संवेदना अनुभूति एवं बंधन का विचार करने लग जाते हैं। सचमुच मनोवैज्ञानिक स्तर पर तो जीवों की अनेकता अस्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। स्वयं शंकराचार्य भी जागृतावस्था या व्यावहारिक दृष्टि से उसे अस्वीकार नहीं.
१. त० अ० सू०-५/२९ २. त० सू० भा०--१/३५ ३. स्था० सू०-१/१; १/४ ४. राधाकृष्णन्- इंडियन फिलासफी-पहला भाग--पृ० ३३९ ५. द्र० सं०-३५.८ ६. राधाकृष्णन्-(उपर) भा०-१ पृ. ३३९
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