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जनदर्शन में अद्वैत की प्रवृत्तियां
और दुःखभोगी है ।' उपाधियुक्त आत्मा ही कर्त्ता, सुखभोक्ता एवं दुःखभोक्ता है, जिससे परमात्मा मुक्त है। श्री योगीन्द्र का "परमात्म- प्रकाश" सचमुच एक प्रत्ययवादी विचार समुपस्थित करता है क्योंकि वे कहते हैं- "आत्मा प्रत्यक् है परा नहीं ।" परमात्मा ही शान्ति, सुख और आनन्द है ।
त्रिविध आत्मा के सम्बन्ध में योगीन्द्र, कुन्दकुन्द, पूज्यपाद, गुणभद्र, अमृतचंद्रादि सब एकमत हैं । उसी तरह जैनेतर साहित्य में विशेषकर उपनिषदों के "पंचकोष" के सिद्धांत में भी ऐसा संकेत मिलता है । अन्ततः ये तीनों एक ही हैं।" आत्मा चैतन्य एवं अमूर्त के अतिरिक्त और कुछ नहीं है और परमात्मा भी अनन्त दर्शन, ज्ञान एवं आनन्द ही हैं । अतः आत्मा ही परमात्मा है । केवल कर्मबन्धन के कारण ही परमात्मा को आत्मा माना गया। योगीन्द्र के परमात्मा को आध्यात्मिक विकास में शीर्षस्थ स्थान प्राप्त है, जो कर्त्ता - कर्म से भी परे है ।
यद्यपि यह विचार
थोड़ा भिन्न विद्यमान है ।
फिर भी यह अस्वीकार नहीं ही करना होगा कि दोनों में इतना साम्य रहते हुए भी हम उपनिषदों के उदात्त अद्वैती और सर्वेश्वर सर्ववादी भावना के वैभव का जैनमत में अभाव पाते हैं । जैनों के अनेक जीववाद का सिद्धान्त प्रत्यक्ष ही अद्वैत के अनुकूल नहीं दीखता है । अन्य जैन मूलग्रन्थों या जैनमत के अनुसार द्रव्य के सिद्धान्त से पड़ता है । द्रव्य विश्वरूप में शाश्वत भाव एवं अनन्त रूप में जातिगत दृष्टि से द्रव्य एक है, जो सभी वस्तुओं के मूल में है । यही विभिन्न पर्यायों में अपने को अभिव्यक्त करता है । जो सत्ता से अभिन्न है, वही द्रव्य है, जो 'द्रु' धातु से निकला है और जिसका अर्थ होता है " द्रवित होना " । यह सत्ता या सत्त से अभिन्न है ।" यही सत्य है । कुन्दकुन्द तो यहां तक कहते हैं कि उत्पाद और व्यय पर्यायों का होता है द्रव्य का नहीं । द्रव्य तो नित्य और अविकृत है ।" उमास्वामी ने द्रव्य या सत्ता की परिभाषा सत् से
१. बृह० ४ / ३ / १२; तंत्ति० ३ / ५; शं० भा० २/३/३३
२. शं० भा० १/३/१९
३. प्र० सा० की भूमिका - ( Detailed summary of Pravachana Sara)
४. तैत्ति० २ / १.५
५. Mysticism in Maharastra - P. 326.
६. स० स० १-१; प्र० प्र० (भूमिका); द्र० सं० - ३, १२ : पं० का स० १ / १६; गोमट्टसार ( जीव कांड ) - १४१ / २
७. पं० का स० - १/८
८. प्र० सा०-१
९. ऊपर - १०
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