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________________ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन फिर जैन एवं अद्वैत दोनों के अनुसार आत्मा को चैतन्यस्वरूप माना गया है । जबकि अज्ञान के कारण आत्मा की देहासक्ति ही बंधन है तो आत्मा अवश्यमेव अभौतिक है । आत्मा अबाधित एवं अबाध्य निविशेष सत्ता मात्र है जो सब स्थितियों में विद्यमान है।' जिस क्षण हम आत्मा के निषेध का प्रयास करते हैं, उसी क्षण हम इसका अज्ञात रूपेण भाव कर देते हैं । यह विशुद्ध सत्ता ही विशुद्ध चैतन्य है । अतः आत्मा चैतन्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। हां यह चैतन्य क्षणस्थान विज्ञान-प्रवाह नहीं है। यह सामान्य और नित्य चैतन्य है। यह निविशेष-चैतन्य ज्ञाता, ज्ञेय एवं ज्ञान के अभेद से बिलकुल विशुद्ध , अनन्त, बहिरात्म एवं पूर्ण ज्ञान है। जैन दृष्किोण से जीव भी एक द्रव्य या सत्ता है, जो सत्य है और अस्तित्ववान है। यही नहीं वेदान्त की तरह यहां भी जीव का सबसे प्रमुख लक्षण चेतना या उपयोग माना गया है। यही नहीं दोनों में आत्मा का वर्णन नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्य, परमानन्द आदि कहकर किया गया है ।' आत्मा और परमात्मा सांसारिक जीव का जो वर्णन शंकर द्वारा किया जाता है, वह जैन मत के बिलकुल समानान्तर है । जैनमत में आत्मा के विविध रूपों का वर्णन है--स्व समय (परमात्मा) तथा पर समय (जीवात्मा)। स्व समय ही उपनिषद् के परमात्मा या वेदान्त के ब्रह्म की तरह है। शंकराचार्य परमसत्ता ब्रह्म को परमात्मा कहते हैं। बल्कि उनके लिए तो परमात्मा और 'ब्रह्म' पर्यायवाची शब्द हैं । जीवात्मा और परमात्मा के तादात्म्य का सिद्धान्त उपनिषद् और दर्शन में समान है। यहां यह ध्यान देने की बात है कि कुन्दकुन्द एवं शंकर दोनों ही जीवात्मा और परमात्मा की एकता प्रकट करने के लिए "अद्वैत' शब्द का व्यवहार करते हैं। जीवात्मा ही कर्ता, भोक्ता १. शं०भा० २।१।११; भगी० २।१३ २. अद्वैत मकरंद ११-१३ ३. स०सि०सा०सं० १२१८-४१; शं०भा० ३।२।१६, विश्वनाथ मुक्तावली ४. विवेक चूड़ामणि पृ० २३९ ५. प०प्र० ३।९, प्र०सा० २।९०; प०का०स० ११२७; प्र०सं० २ ६. तुलना-वेदान्तसार (सदानन्द) १७१ (निखिलानन्द अनुवाद), सं०सा० ११३७, ८।१४; तसू० २।८ ७. स० सा० पृ० १,२ ८. स० सा० की भूमिका पृ० १५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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