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जैनदर्शन में अद्वैत की प्रवृत्तियां
विचार सर्वसम्मत नहीं हैं। किन्तु जैन' एवं वेदान्त के अनुसार मोक्षावस्था द्विविध वरदान हैं । प्रथमतः सारे क्लेशों का क्षय हो जाता है, तत्पश्चात् सक्रिय आनन्द या सुख की प्राप्ति होती है। कारण, आत्मा में अनन्त ज्ञान दर्शनादि है । अत: यह स्वाभाविक है। किन्तु यहां एक कठिनाई है। यदि मोक्ष अध्यात्म साधना का फल है तो यह नित्य नहीं हो सकता । और यदि इस साधना से प्राप्त नहीं होता तो इसकी प्राप्ति अन्यथा संभव नहीं । वेदान्त इस समस्या का समाधान देता है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार मुक्तात्मा ब्रह्म के साथ अभेद को प्राप्त कर लेता है। यह किसी अपूर्ण की प्राप्ति नहीं बल्कि 'प्राप्तस्य प्राप्ति:' ही है।
इसीलिए उपनिषदों ने "तत्त्वभवसि" नहीं प्रत्युत "तत्त्वमसि'२ का ही उपदेश किया है। चंकि ब्रह्म सत एवं चित् के अतिरिक्त आनन्द रूप भी है अत: जीव भी आनन्दरूप' हो जाता है, जब वह ज्ञान प्राप्ति कर लेता है। ज्ञान एवं सुख एक ही है। अतः मुक्ति दुःख निरोध के अतिरिक्त विशुद्ध आनन्द भी है। मंडन के अनुसार भी केवल दुखाभाव ही आनन्द नहीं है क्योंकि दुःख और सुख की अनुभूति साथ-साथ भी संभव है। जैसे शीतल जलाशय में स्थित लेकिन अपने सिर को बाहर रखने वाला व्यक्ति अग्निस्वरूप भगवान भास्कर की तप्त किरणों की दाहकता और जलाशय की शीतलता एक साथ अनुभव कर सकता है। आत्मा का स्वरूप
बंधन एवं मोक्ष का विचार तो आत्म-विचार से ही प्रतिफलित होता है। क्योंकि आत्म-बंधन और मोक्ष या सत्यासत्य सबसे पहले से ही वर्तमान है। उसका अस्तित्व स्वयंसिद्ध है और यह संशय के परे भी है क्योंकि यह संशयात्मा के संशय में भी अपना अस्तित्व दिखलाता है । अपरोक्षानुभूति आधारित इसका ज्ञान प्रमाण निरपेक्ष मानना चाहिए। यह आधारभूत मान्यता है । तत्त्वदृष्टि से आत्मा का अस्तित्व ही उसकी नित्यपूर्णता आदि का प्रमाण है । यहां तक तो जैन एवं अद्वैत वेदान्त में साम्य है। १. स०सा० १०।४। २. छान्दो० ३. तैति० ३।८, २१७ । ४. प्रसा० ११५९-६० । ५. Ramchandran N. The Concept of Mukti in Ind. Phil.
(Pro. of Ind. Phil. page 194. ६. शं०भा० २।३७; छान्दो० ८७.१२, तैति० २।१-७ ७. ईश० १; शं०भा० ११११४
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