________________
६०
जैनदर्शन : चिन्तन - अनुचिन्तन
साधना नहीं, स्वयं मोक्ष ही है ।' दुःख का कारण केवल विभ्रम एवं मिथ्याज्ञान ही है । "
जैनदर्शन में भी अविद्या को मिथ्यात्व कहा गया है। तमिस्रा अंत होने पर ही ज्ञानोदय होता हैं । अतः ज्ञान-मार्ग ही निर्वाण मार्ग है । जैनदर्शन ने भी त्रिरत्नं में सम्यक् ज्ञान का समावेश किया ही हैं। जीव या आत्मा स्वभावत: पूर्ण है, जिसमें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य एवं अनन्तसुख विद्यमान है । यह स्वयं भास्वर है किन्तु कर्म पुद्गल रूपी मेघ एवं कुहांसे भी तो लगे हुए हैं । जिस समय मेव हट जाएंगे, सूर्य का आलोक फैल जायेगा । वस्तुतः आत्मा के शुद्ध स्वरूप की अनभिज्ञता ही हमें सांसारिक बंधनों में जकड़ देती है | अतः सम्यक् ज्ञान और तत्त्व-ज्ञान सबों के लिए परमावश्यक है । यहां जैनमत एवं वेदान्त दृष्टि में मूलतः कोई पार्थक्य नहीं है ।
मोक्ष का स्वरूप
मोक्ष ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है । चार्वाक को छोड़कर सभी भारतीय दार्शनिक मोक्ष को ही परम पुरुषार्थ मानते हैं । किन्तु मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध में दो विभिन्न विचार हैं— भावात्मक एवं अभावात्मक । * नैयायिक, सांख्य, योग और पूर्व मीमांसा' के अनुसार यद्यपि मुक्तावस्था आत्यन्तिक दुखाभाव है, फिर भी इसे भावात्मक कहा जा सकता है। (यह
४
१. राधाकृष्णन् —–इण्डियन फिलासफी २. शं० भा० २ / ३ / ४६ ; छान्दो० ८ / आ०पू० ५३८, देखें सां०का० ४४; २ / ३, त०सं० ८.१.३ उ०ध्य०सू० २१/१९, २३/४३, २८ / २०, स्था०सू० २/२ |
न्या० भा० ४ / २ /१ प्र० ५१ ४४, सां० कौ० ४४; उ०सू०
मा० पृ०
३. त०सू० १ / १ ; त०अ०सू० १० / १ ; द्र०सं० ४० चन्द्रप्रभचरित् पृ० ५३८ ;
९ / २९३ सं ० का ० सा० १/४७ ( संसार और मुक्ति ) ।
- भाग-२ पृ० ६३७ । और ५
त०सू० भा० पृ० ७२ ; धर्मशर्माभ्युदयम् २१/१६१; प्र०सा० ११ / ८१ प्र०सा० की भूमिका
स०सा०
४. तुलना मा०वृ० पृ० १९७ ( प्रपंच प्रवृत्ति) भावात्मक व्याख्यार्थ देखेंवि०म० ( बुद्धघोष ) ८ / २४७ ; १६ / ६४; १६ / ३७ १६ / ७१९०; ३७३, ० म०नि० ५७ ।
५. न्या०या० १।१।२१, न्या०मं० पृ० ५०८ ( भावात्मक व्याख्यार्थ देखें-
ना०सं० २०० ।
६. सां०का० ६७; सां०त० कौ० ६७ ।
७. यो० भा० ४।३० ।
८. श्लो० वा० १०७; त०लो० १५६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org