________________
जैनदर्शन में अद्वैतवादी प्रवृत्तियां
अविद्या-बंध हेतु
अध्यात्म भारतीय चिन्तनधारा का मूल तत्त्व रहा है। सत्य का सन्धान एवं अध्यात्म का आलोक प्राप्त करना ही यहां की विशेषता रही है। इसीलिए तो वैदिक प्रार्थना है—असतोमाद्गमय, तमसो मा ज्योतिगमय, मृत्यौमाऽमृतंगमय । जन्म-मरण एवं पुनर्जन्म की प्रक्रिया ही भव-बंधन है । अतः इस प्रक्रिया की परिसमाप्ति ही परिनिर्वाण या मोक्ष है।' सत्य-दर्शन ही मोक्ष-दर्शन है । अतः अज्ञान ही बंधन का कारण है। यही हमारा अवतरण या अपकर्ष है। इसीलिए मोक्ष के लिए ज्ञान अनिवार्य है।
अद्वैत वेदान्त के बीजांकूर उपनिषदों में भी विद्यमान हैं, जहां अविद्या को विभ्रम एवं संसारासक्ति कहा गया है। माया ब्रह्मांश-शक्ति है जिससे नानात्व का आविर्भाव होता है। यदि माया संसार का कारण है तो अविद्या ही हमें उससे आसक्त रखती है। गौड़पाद ने भी माया को ब्रह्मांड-विभ्रम तथा अविद्या को तद्जनित जीवगत-भ्रम माना है। शंकराचार्य भी माया को समष्टिगत तथा अविद्या को व्यष्टिगत अज्ञान की व्याख्या के लिए स्वीकार करते हैं । चाहे जो भी हो, मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है जो मात्र ज्ञान से ही अजित हो सकता है.--यथा, ज्ञानात् एव तु कैवल्यम् । ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः । बादरायण का भी यही सुनिश्चित मत है.--"पुरुषार्थोऽतशब्दादिति बादरायणः । उपनिषद् ने भी इसी का समर्थन किया है-"तरतिशोकमात्मवित् ।। ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपादौः । "ब्रह्मविदा प्राप्ति परमरतै ।''" स्वयं शंकर के शिष्य पद्मपाद ने भी मोक्ष को मिथ्याज्ञान का अभाव कहा है। यह अन्तदृष्टि तथा जीवन एवं जगत् के प्रति यह अभिनव दृष्टिकोण मोक्ष की १. भ०मी० २/५१; कठ०. १/३/७-८ । २. Malkani, G.R., Vedantic Epistimology p-3. ३. वेदवचन । ४. ब्र०सू० शं०भा० ३/४/१. ५. छान्दो० ३/४-१ । ६. मुंड ३/२,९। ७. तैत्ति० २/९; छान्दो० ६/१४, ८/७; बृह० ४/५/६ से १५; श्वेत
५/१३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org