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________________ ५८ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन तो अनेकांत का हरगिज प्रतिक्षेप नहीं करना चाहिये । फिर तीन गुणों वाली प्रकृति को मानने वाले सांख्य को तो और भी विरोध नहीं करना चाहिये । (वीतराग, स्तोत्र, ८/८-१०)। ___ जैनाचार्य अकलंक देव ने स्याद्वाद-अनेकांतवाद पर संशय, विरोध, वैयधिकरण, संकर, व्यतिकर, अनवस्था, अप्रतिपत्ति और अभाव इन आठ दूषणों का परिहार (अष्टशती, अष्टसहस्री एवं प्रमाण संग्रह) में किया है । विरोध दोष ही मुख्य है जिसे हम देख चुके हैं । संशय दोष लगाना गलत है जब दोनों धर्मों की अपने दृष्टिकोर्गों से सर्वथा निश्चित प्रतीति होती है । संकर दोष तो तब होता जब जिस दृष्टिकोण से स्थिति मानी जाती है, उसी से उत्पाद और व्यय भी माने जाते । लेकिन दोनों की अपेक्षायें जुदी-जुदी है । व्यतिकर दोष तो परस्पर विषयागमन से होता है। किन्तु जब अपेक्षा में निश्चित है, धर्मों में भेद है तो परस्पर विषयागमन का प्रश्न ही नहीं उठता है । उसी तरह वैयधिकरण दोष भी नहीं लगाया जा सकता क्योंकि सभी धर्म एक ही आधार में प्रतीत होते हैं । एक आधार में होने से वे एक नहीं हो सकते जैसे एक ही आकाश प्रदेश रूप आधार में जीव, पुद्गल आदि षट् द्रव्यों की सत्ता पायी जाती है। फिर अनवस्था दोष का भी प्रसंग नहीं आ सकता क्योंकि धर्म में अन्य धर्म नहीं माने जाते बल्कि वस्तु त्रयात्मक मानी जाती है। इसी तरह धर्मों को एक रूप मानने से एकातित्व का प्रसंग नहीं उठना चाहिए क्योंकि वस्तु अनेकात रूप हैं और सम्यक् एकान्त और अनेकांत का कोई विरोध नहीं । जिस समय उन्माद को उत्पाद रूप से अस्ति और व्यय रूप से नास्ति कहेंगे उस समय उत्पाद धर्म न रहकर धर्मी बन जायगा । धर्म-धर्मिभाव सापेक्ष हैं । फिर जब वस्तु लोक व्यवहार तथा प्रमाण से निर्बाध प्रतीति का विषय हो रही है तो उसे अनवधारणात्मक अव्यवस्थित या अप्रतीत कहना भी गलत है । और जब प्रतीत है तब अभाव तो हो ही नहीं सकता। मुझे भी लगता है कि आज का युग धर्म समन्वय है। समन्वय ही सर्वोदय का मूलाधार है। किन्तु जब तक हम वस्तु के स्वरूप पर विचार करने के लिए अनेकांत दृष्टि नही रख पायेंगे, हम समन्वय की दिशा में आगे भी नहीं बढ़ पायेंगे। भारतीय संस्कृति ही समन्वय की संस्कृति है। यही विश्व को भारतीय संस्कृति की देन है। जाति, धर्म, भाषा, सम्प्रदाय आदि की विविधताओं के बीच भारतीय मनीषियों ने समन्वय किया है। समन्वय का एक ही विकल्प है--संघर्ष, और संघर्ष का परिणाम सत्यानाश है । अतः जिसे स्वामी समन्तभद्र ने सर्वोदय-तीर्थ कहा है, उसे हम समन्वय तीर्थ भी कह सकते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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