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युक्त्यनुशासन का सर्वोदय तीर्थ अनित्य, न उभय और न अवाच्य, तो प्रकारान्तर से एकान्तवाद का खंडन एवं अनेकांतवाद का समर्थन करते हैं। प्रशस्तपाद भाष्य के टीकाकार श्री व्योमशिव भी इसमें "विरोध धर्म दोष" एवं अनेकांत में भी अनेकांत मानने में अनवस्था दोष देखते हैं । ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार भास्कर भट्ट भी विरोध और अनवधारण दोप देखते हैं। यह आश्चर्य है कि भास्कर स्वयं अपने सिद्धांतों में जगह-जगह पर भेदाभेदात्मक तत्त्व का समर्थन करते हैं किन्तु अनेकांतवाद का खंडन करते हैं । विज्ञानभिक्ष (ब्रह्मसूत्र के विज्ञानामृत भाष्य, २/२/३३) में आपत्ति उठाते हुए कहते हैं कि "प्रकार भेद के बिना दो विरुद्ध धर्म एक साथ नहीं रह सकते ।” किन्तु अनेकांत-व्यवस्था में अपेक्षाभेद को स्वीकार किया ही गया है तो प्रकार भेद को अस्वीकार कहां करता है ? श्रीकंठ (श्री कंठ भाष्य ब्रह्मसूत्र, २/२/३३) भले ही पुरानी विरोध वाली दलील दुहराते हैं लेकिन उनके शिष्य अप्पय दीक्षित तो देशकाल और स्वरूप आदि अपेक्षाभेद से अनेक धर्म स्वीकार करना अच्छा मानते हैं। अफसोस यही है कि वे कहते हैं - "स्याद्वादी बिना अपेक्षा के ही सब धर्म मानते हैं।' यह नितान्त मिथ्या आरोप है। श्री रामानुजाचार्य भी उसी प्रकार अपेक्षा भेद के आविष्कारक जैन आचार्यों को अपेक्षा भेद, उपाधिभेद या प्रकार भेद का उपदेश देते हैं। (वेदांतदीप, पृ. १११-१२) । वल्लभाचार्श भी विरोध दूषण उपस्थित करते हैं लेकिन मानते हैं कि "विरुद्ध धर्म ब्रह्म में ही प्रमाणित हो सकता है।" (अणु भाष्य २/२/२/३३) निम्बार्काचार्य स्वयं भेदाभेदवादो होकर अनेकांत में सत्त्व और असत्त्व धर्मों को विरोध दोष देते हैं । (निम्बार्क भाष्य, ब्रह्मसूत्र, २/२/३३)।
वास्तव में अनेक दृष्टियों से वस्तु स्वरूप का विचार करना न केवल जैन की अपितु भारतीय दर्शन की परम्परा रही है । ऋग्वेद के "एक सद्विप्राः बहुधा वदन्ति'' (ऋग्वेद २/३/२३,४६) के पीछे यही अभिप्राय है। बुद्ध विभज्यवादी थे अत: प्रश्नों का उत्तर अनेकांशिक रूप से देते थे---"अस्सतो लोकोत्तिखो पोट्पाद मया अनेकसिको.... ...." दीर्घनिकाय, पोट्ठपाद सुत्त)। ब्रह्मसूत्र में आचार्य आश्मरथ्य और औडुलोमि (१/४/२०-२१) का भेदाभेद का मत आता है । स्वयं शंकराचार्य ने अपने भाष्य (२/३/६) में भेदाभेदवादी भर्तृ प्रपञ्च के मत का खंडन किया है। सांख्य कारण रूप से प्रकृति को एक परिणाम रूप से अनेक मानते ही हैं। योगशास्त्र भी इसी तरह अनेकांतरूपात्मक परिणामवाद को मानता है । (योग भाष्य/व्यास भाष्य)। १/४/३३ । मीमांसक कुमारिल भी आत्मवाद में आत्मा का व्यावृत्ति और अनुगम उभय रूप से समर्थन करते हैं । (मीमांसा श्लोक वार्तिक, २८) । आचार्य हेमचंद्र ने ठीक ही लिखा है कि ज्ञान के अनेकाकार मानने वाले समझदार बौद्धों और अनेक आकार वाले एक चित्र रूप को मानने वाले नैयायिक और वैशेषिक को
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