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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन
सीमित नहीं रहनी चाहिये । वस्तुतः अनेकांत एक जीवन-दर्शन है। यह सब दिशाओं से, सब ओर से खुला एक मानस चक्ष है। ज्ञान, विचार और आचरण किसी भी क्षेत्र में यह न केवल संकीर्ण दृष्टि का निषेध करता है बल्कि अधिक से अधिक दृष्टिकोणों को सहानुभूति के साथ आत्मसात् करने का प्रयास है। इसी तरह विश्व के सम्बन्ध में सामान्य गामिनी और विशेषगामिनी दो भिन्न दृष्टियों में समन्वय हो सकता है। यों दोनों वाद अन्त में शून्यता तथा स्वानुभवगम्यता तक पहुंचे । यों दोनों के लक्ष्य भिन्न होने के कारण वे दोनों परस्पर टकराते हुए दीखते हैं । उसी प्रकार भेदवाद-अभेदवाद के अनेकांत दृष्टिकोण से ही सत्कार्यवाद एवं असत्कार्यवाद का जन्म हुआ। इसी प्रकार सद्वाद-असद्वाद, निर्वचनीय-अनिवर्चनीयवाद, हेतु-अहेतुवाद आदि के द्वंद्वों का भी अनेकांत दृष्टि से समवन्य किया जा सकता है । यदि हम पूछते कि "इन सब में क्या कोई तथ्यांश नहीं है या है," या "किसीकिसी में तथ्यांश है या सभी पूर्ण सत्य हैं" और अन्तर्मुख होकर विचार करें तो विरोधों का भी समाधान हो जायगा । यही दृष्टि अनेकांत दृष्टि है। जिसमें जिस हद तक सत्यांश है, उसे स्वीकार कर सभी सत्यांशों को विचारसूत्र में पिरोकर एक अविरोधी माला बनायी जा सकती है। अतः अनेकांत प्रकाश में हमें यह समझना होगा कि प्रतीति चाहे अभेदगामिनी हो या भेदगामिनी, निर्वचनीय या अनिर्वचनीय, हेतुवादी या अहेतुवादी सभी वास्तविक हैं । प्रत्येक प्रतीति की वास्तविकता उसके अपने विषय तक तो है ही पर जब वह विरुद्ध दिखाई देने वाली दूसरी प्रतीति के विषय की अयथार्थता दिखाने लगती है तो वह खुद भी अवास्तविक बन जाती है इसलिये वे दोनों स्थानों पर रह कर अविरोधी भाव से प्रकाशित कर सकें और वे सब मिलकर वस्तु का पूर्ण स्वरूप प्रकाशित करने के कारण प्रमाण मानी जा सकें यही अनेकांत दृष्टि है। इस समन्वय विचार के बल पर यह समझाया है कि सद्-द्वत और सद्-अद्वैत के बीच कोई विरोध नहीं क्योंकि वस्तु का पूर्ण रूप ही अभेद और भेद या सामान्य और विशेषात्मक ही है। एक मात्र सामान्य के समय सत् का अर्थ अद्वत है, किन्तु जब विश्व को गुणधर्म कृत भेदों में विभाजित किया जाता है तो वह अनेक है, जिसे हम सत कह सकते हैं। यानी काल, देश तथा देश-कालातीत सामान्य विशेष के उपर्युक्त अद्वैत-द्वत से आगे बढ़कर कालिक सामान्य विशेष के सूचक नित्यत्ववाद और क्षणिकत्ववाद भी हैं । भले दोनों में बाहर से विरोध मालम पड़ते हैं, लेकिन हैं नहीं । जब हम किसी तत्त्व को तीनों कालों में अखंड रूप अनादि-अनन्त रूप से देखेंगे तो अखंड प्रवाह से आदि-अन्त रहित होने से नित्य होगा, परन्तु इसे जब काल पर्यन्त स्थायी ऐसा परिमित रूप ही नजर आता है, तो सादि और सान्त है, और विवक्षित काल जब
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