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________________ युक्त्यनुशासन का सर्वोदय तीर्थ बहुत छोटा होता है तो वह क्षण के बराबर होने से क्षणिक कहलाता है । कोई वक्ष का जीवन-व्यापार मूल से लेकर फल तक में कालक्रम से होने वाली बोज, अंकुर, स्कंध, शाखा-प्रतिशाखा, पत्र, पुष्प से लेकर फल आदि विविध अवस्थाओं में होकर ही प्रवाहित और पूर्ण होता है। इसी वृक्ष को हम अखंड रूप से या खंड रूप से समझ सकते हैं और दोनों ही सत्य एवं यथार्थ हैं । अतः एकमात्र नित्यत्व या अनित्यत्व को वास्तविक कह कर दूसरे विरोधी अंश को अवास्तविक कहना ही नित्य-अनित्यवादों की टक्कर का बीज है, जिसे अनेकांत दृष्टि हटाती है । इसी तरह अनेकांत दृष्टि अनिर्वचनीयत्व और निर्वचनीयत्ववाद की पारस्परिक टक्कर को भी मिटाती है । इसी तरह भावरूपता और अभावरूपता, हेतुवाद-अहेतुवाद, सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद, परमाणुवाद-पुंजवाद आदि बाह्यरूप से विरोधी विचारों के विरोध का भी परिहार किया जा सकता है। इस प्रकार निर्दोष समन्वय मध्यस्थभाव से होता है और इसके लिये ही अनेकांतवाद के आस-पास नयवाद और भंगवाद आप ही आप फलित हो जाते हैं । केवल ज्ञान को उपयोगी मानकर उसके आश्रय से प्रवृत्त होने वाली विचार-धारा नामक ज्ञान नय है और केवल क्रिया के आश्रय से प्रवृत्त होने वाली विचारधारा क्रिया-नय है । नय अनेक और अपरिमित हैं, अतः विश्व का पूर्ण दर्शन-अनेकांत भी निस्सीम है। इसी तरह भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं; दृष्टिकोणों या मनोवृत्तियों से जो एक ही तत्त्व के नाना दर्शन फलित होते हैं, उन्हीं के आधार पर भंगवाद की सृष्टि खड़ी होती है । दो दीख पड़ने वाले विरोधी विचारधाराओं का इससे समन्वय किया जाता है। सप्त भंगी का आधार नयवाद किन्तु ध्येय समन्वय अर्थात् अनेकांत कोटि का व्यापक दर्शन कराना है। किन्तु अखण्ड और सजीव सर्वांश सत्य को अपनाने की भावना को हम इनकार नहीं कर सकते हैं। अनेकांतवाद भले ही जैनों के नाम से चलता है लेकिन यह भावना अनेक जगहों में आदर एवं श्रद्धा ही नहीं बल्कि बुद्धि और तर्क से भी अपनाई गई है। ऋग्वेद में “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' (ऋग्वेद, १-१६४-४६ या उपनिषद् में "तदेजति तन्नजति तद्दूरे तद्वन्तिके" (ईश-५) आदि कहकर "विरुद्ध धर्माश्रयत्व'' को स्वीकार किया ही गया है। सुकरात में भी हम ज्ञान-अज्ञान के सापेक्षवाद का अनूठा दर्शन पाते हैं वे जब कहते हैं- 'मैं अज्ञानी हूं क्योंकि मैं यह जानता हूं कि मैं अज्ञ हूं। दूसरे ज्ञानी नहीं हैं क्योंकि वे नहीं जानते हैं कि वे अज्ञ हैं।" सुकरात के शिष्य अफलातूं ने कहा कि भौतिक पदार्थ सम्पूर्ण सत् और असत् के बीच के अर्द्ध सत् जगत में रहते हैं। जीवन में अनुभव और तर्क की भिन्न-भिन्न दृष्टियां होती हैं। भिन्नता तर्क में है, जीवन में नहीं। क्रोसे ने कहा है कि दो भिन्न कल्पनायें एक दूसरे के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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