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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन
दृष्टि से हम अनेकांतवाद को विभज्यवाद का ही बिकसित रूप मान सकते हैं । भगवान् बुद्ध दो विरोधी वादों को देखकर उससे बचने के लिए अपना तीसरा मार्ग--"मध्यम मार्ग' मानते हैं। भगवान् बुद्ध विरोधी-तत्त्वों को अस्वीकार करते हैं किन्तु महावीर उन दोनों विरोधी तत्त्वों का समन्वय करके अपने नये मार्ग अनेकांतवाद की प्रतिष्ठा करते हैं।
भगवान् बुद्ध ने अव्याकृत प्रश्नों (मज्झिमनिकाय, सुत्त-६) को तीन प्रश्नों में समाहित कर उन पर विचार किया है-(१) लोक की नित्यताअनित्यता अर्थात सान्तता-निरन्तता (२) जीव-शरीर का भेदाभेद (३) जीव की नित्यता-अनित्यता अर्थात् तथागत की मरणोत्तर स्थिति ।।
प्रथम प्रश्न का उल्लेख हम भगवती सूत्र (२/१; ९/६) एवं सूत्रकृतांग (१/४/६) आदि में, द्वितीय प्रश्न का भगवती सूत्र (१३/४/४९५ १७/२; आचारांग १७०; संयुक्त निकाय १२/३५) में एवं तृतीय प्रश्न का आचारांग (१/५/६; भगवती १२/५/४५२; ७/२/२५३) आदि में पाते हैं।
लोक की नित्यता-अनित्यता के विषय में बुद्ध ने उन्हें अव्याकृत बताया क्योंकि वे किसी बाद में पड़ जाने के भय से निषेधात्मक उत्तर देते थे लेकिन महावीर ने स्पष्ट बताया कि लोक द्रव्य की अपेक्षा से सान्त क्योंकि संख्या में एक है किन्तु पर्यायों की अपेक्षा से अनन्त है । (भगवती सूत्र २/१ ९०; ९.३८.७) । उसी प्रकार जीव-शरीर के भेदाभेद प्रश्न को हल किया गया है (भगवती सूत्र १३/७/४९५; १४.४.५१४; १०/२ आदि)। चार्वाक शरीर को आत्मा मानता था और उपनिषद् आत्मा को शरीर से भिन्न । बुद्ध ने दोनों मतों को दोषपूर्ण मानते हुए नैरात्मवाद का सिद्धांत दिया और दोनों का समन्वय नहीं कर सके । लेकिन भगवान महावीर ने जीव-शरीर के विषय में भेदाभेद रूप से समन्वय किया। यदि आत्मा शरीर से बिल्कुल अभिन्न माना जायगा तो शरीर भस्म हो जाने पर आत्मा का भी नाश माना जायगा । फिर उस स्थिति में परलोक सम्भव नहीं होगा और कृत प्रणाश दोष होगा। यदि आत्मा को शरीर से भिन्न माना जाएगा तो फिर कायकृत कर्मों का फल भी नहीं मिलना चाहिये । अतः अकृतागम दोष की उत्पत्ति होती है।
हमने देखा कि इन प्रश्नों को जहां बुद्ध अव्याकृत बता देते हैं, वहीं महावीर अनेकांतात्मक दृष्टि से इनका समाधान देते हैं । (मज्झिम निकाय सव्य सुत्त २, भगवती १२/५/४५२; ७/२/२७३; ७/३/२७९; ९/६/३८७; १/४/४२)। यह ठीक है कि बुद्ध एवं महावीर दोनों एकांशवादी नहीं बल्कि विभज्यवादी थे (मज्झिम निकाय, सूत्र ९९)। दोनों के विभज्यवाद की तुलना करके गणधर गौतम ने कहा कि जहां भगवान बुद्ध ने निषेधात्मक या यो कहें कि अव्याकृत-दृष्टि अपनायी, वहां भगवान महावीर
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