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________________ ४८ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन दृष्टि है । इन दर्शनों में तात्त्विक विचारणा अथवा आचार-व्यवहार चाहे जो भी हों, वे सब अपनी-अपनी आधार दृष्टि को ध्यान में रखकर ही चलते हैं। यही उनकी अपनी विशिष्टता या कसौटी होती है । यह ठीक है कि सभी महान् पुरुषों के जीवन का लक्ष्य सत्यान्वेषण होता है फिर भी सत्यनिरूपण की अपनी-अपनी पद्धति होती है । जैन दर्शन की यह दृष्टि अनेकांतात्मक है जिसे युक्त्यनुशासन में सर्वोदय-तीर्थ कहा गया हैं। । जहां अनेकांतदृष्टि जैन दर्शन का प्राण और जैन संस्कृति का हृदय है, वहां जैनेतर दर्शनों का भी अनेकांत कई अर्थों में आश्रय देखा जाता है। आचार्य शान्तिरक्षित ने यह स्पष्ट किया है कि जैनों के अलावा मीमांसक और सांख्य दर्शनों में भी अनेकांतदृष्टि का अवलम्बन किया गया है। यह ठीक है कि मीमांसा और सांख्य-योग दर्शनों में भी अनेकांत विचार जैन ग्रन्थों की भांति स्पष्ट नहीं हो सका और न उतना व्यापक ही है। अद्वैतवेदान्त ने भी जिस प्रकार परमार्थ, व्यवहार एवं प्रतिभास के सापेक्षवाद का प्रतिष्ठापन किया है, उसी प्रकार माध्यमिक बौद्धों ने भी परमार्थ, लोकसंवृत्ति और अलोकसंवृति नाम से सत्य की तीन अवस्थाओं का वर्णन किया है । संक्षेप में प्रत्येक विचार किसी दृष्टि से किसी अवस्था में सत्य है। शायद इन्हीं कारणों से शंकर को सोपानवादी भी कहा गया है। जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति भी इसी सापेक्षवाद का संकेत करते हैं। प्रख्यात निरपेक्षवादी ब्रैडले भी स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक भ्रांति में सत्य का यत्किचित् अंश रहता है। एक तमिल लोकोक्ति में कहा गया है-"दृष्टे किमपि लोकेऽस्मिन् न निर्दोषं न निर्गुणम्"। इसका अर्थ होता है कि अपने दृष्टि बिन्दु के साथ ही अन्य दृष्टिबिन्दु भी हैं। यह तभी संभव है जब हमारे हृदय में सहानुभूति की भावना हो जो दया या करुणा नहीं, बल्कि दूसरे की भावनाओं में प्रवेश करके उसे समझने का प्रयास है। सत्यान्वेषी वैदिक ऋषि दीर्घतमा विश्व के मूल कारण एवं स्वरूप का अन्वेषण करते हुए अनेक प्रश्न कर अन्त में यह कह देते हैं—एकं स विप्राः बहुधा वदन्ति ।" दीर्घतमा के इस उद्गार में मानव स्वभाव की विशेषता स्वरूप समन्वयशीलता का दर्शन होता है जिसका शास्त्रीय रूप ही अनेकांतवाद में परिलक्षित होता है । नासदीय सूक्त (X.120) में 'सत्' एवं 'असत्' जैसे सभी मतवादों का समन्वय है। इसी प्रकाश भगवान बुद्ध ने मध्यम मार्ग के अवलम्बन के लिए 'प्रतीत्यसमुत्पाद' का उपदेश किया। (संयुक्त निकाय, XII.35.2; अंगुत्तर निकाय, ३) विभज्यवाद । शाश्वतवाद एवं उच्छेदवाद दोनों को छोड़कर मध्यम मार्ग का उपदेश देता है। (संयुक्त निकाय, XII. 17; XII. 24)। जिस प्रकार उपनिषदों ने आत्मवाद एवं ब्रह्मवाद की पराकाष्ठा के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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