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________________ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन चार्य, रत्नपुत्र सिंह, व्याघ्रशिशु, रामचन्द्र सूरि, धर्मभूषण, राजशेखर, सोमतिलक आदि अनेक जैन नैयायिक हुए । फिर वि. तेरहवीं सदी में गंगेश उपाध्याय की प्रतिभा ने नव्य न्याय का युग प्रारम्भ किया। यह इतना महत्त्वपूर्ण हुआ कि बिना इस नव्य न्याय की शैली में प्रवीण हुए कोई दार्शनिक सभी दर्शनों के विकास का पारगामी नहीं हो सकता। किन्तु जैन दर्शन इन पांच शताब्दियों में दार्शनिक विकास से वंचित रहा और इस शैली को न अपनाने के कारण अपरिष्कृत रह गया। १६वीं शताब्दी में यशोविजय ने संवत् १६९९ में इस अभाव को पूर्ण किया और अनेकांत-व्यवस्था नामक स्वतंत्र ग्रन्थ नव्यन्याय की शैली में जैन दर्शन को प्रवेश दिलाया। फिर यशस्वत् सागर (सं० १६५६), विमलदास, आचार्य विजयनेमि एवं उनके शिष्यगण हुए। लेकिन जैन दर्शन के विकासक्रम में कोई नये विचार का सृजन नहीं हो सका । यह भारतीय चिन्तन धारा की दुर्बलता है कि हम में अतीत के प्रति अत्यन्त मोह रहता है। वैदिक दर्शन में वेद-वेदान्त से लेकर विवेकानन्द, बौद्ध दर्शन में भगवान बुद्ध से लेकर नव बौद्ध चिन्तन और जैन दर्शन में भगवान महावीर से लेकर आज तक दार्शनिक क्षेत्र में कोई नवीन चिन्तन खड़ा नहीं हो सका है। पं० सुखलाल संघवी ने १९४९-५१ तक "जैन साहित्य की प्रगति" की समीक्षा करते हुए लिखा है कि हमारी चिरकालीन संघशक्ति इसलिये कार्यक्षम सावित नहीं होती कि उसमें नवदृष्टि का प्राण स्पन्दन नहीं है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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