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________________ जैनदर्शन का वैशिष्ट्य चिन्तन से स्पष्ट दिखता है कि अनेकान्त दृष्टि का मूल भगवान से भी पुराना है, हां वह अनेकांत का व्यवस्थित रूप महावीर से पूर्ववर्ती जैन या जैनेतर साहित्य में नहीं मिलता है, भले ही उसके बीज वैदिक, बौद्ध एवं जैन सभी परम्पराओं में न्यूनाधिक उपलब्ध हों। भगवान महावीर ने अनेकांत दृष्टि को अपने जीवन में उतारा था और उसके बाद ही दूसरों को इसका उपदेश दिया था। उसमें अनुभव एवं तप का बल है, भले ही तर्कवाद या खण्डन मंडन का जटिल जाल नहीं हो। भगवान महावीर के अनुगामी आचार्यों में प्रज्ञा एवं त्याग तो था लेकिन स्पष्ट जीवन हो उतना अनुभव और तप नहीं था । इसीलिये वाद, जल्प एवं वितराडा का भी सहारा लिया। इस खण्डन, मंडन, स्थापन, प्रचार के दो हजार वर्षों में महावीर के शिष्यों ने अनेकांत दृष्टि विषयक इतना ग्रंथ समूह बना डाला । इस क्रम में समन्तभद्र और सिद्धसेन, हरिभद्र और अकलंक, विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र, अभयदेव और वापिपवेशी, हेमचन्द्र एवं यशोविजय जी जैसे प्रचंड विचारकों ने अनेकांत दृष्टि के बारे में जो लिखा वह भारतीय दार्शनिक साहित्य की अमूल्य निधि है । सबसे महत्त्वपूर्ण तो यह तथ्य है कि अनेकान्त दृष्टि का प्रभामंडल असाधारण है । वादरायण जैसे सूत्रकारों ने उसका खण्डन करने के लिए सूत्र रच डाले और बाद में उस सूत्र के भाष्यकारों ने भाष्यों की रचनायें की। वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति और शांतरक्षित जैसे प्रभावशाली बौद्ध विद्वानों ने अनेकांतवाद की पूरी आलोचना की, फिर जैन विद्वानों ने उन आक्षेपों के उत्तर दिये। इस प्रचण्ड संघर्षण के परिणामस्वरूप अनेकांत दृष्टि का तर्कबद्ध विकास हुआ और उसका प्रभाव भी अन्य सम्प्रदायों के विद्वानों पर पड़ा। रामानुज ने अनेकान्त दृष्टि से विशिष्ट द्वैतवाद का भौर वल्लभ ने शुद्धाद्वैतवाद का खण्डन किया। __अनेकांत युग के पश्चात् प्रमाणशास्त्र व्यवस्था युग आता है । जिस प्रकार असंग-बसुबन्धु ने बौद्ध विज्ञानवाद की स्थापना की किन्तु प्रमाण-शास्त्र की रचना एवं स्थापना का कार्य तो दिङ्नाग ने किया, जिसके उत्तर में प्रशस्तपाद, उद्योतकर, कुमारिल सिद्धसेन, मल्लवादो, सिंहगणि, पूज्यपाद, समन्तभद्र, ईश्वर सेन, अविद्धकर्ण आदि ने अपने अपने दर्शन में प्रमाणशास्त्र का समर्थन किया तथा दिङ्नाग ने, टीकाकार धर्मकीर्ति और उनके शिष्य अर्चक, उद्योतकर, शांतरक्षित, प्रज्ञाकर गुप्त आदि हुए और दूसरी ओर बोद्धेतर दार्शनिकों में प्रभाकर, उम्बेक, व्योमशिव, जयंत, सुमति, पात्रस्वामी, मंडन आदि हुए जिन्होंने बौद्ध पक्ष का खण्डन किया। इसी विचार-संघर्ष के चार शताब्दिकाल में हरिभद्र, अकलंक, विद्यानन्दि, अनन्तकीर्ति, शाकटायन, अनन्तवीर्य, माणिक्यनन्दि, सिद्धर्षि, अभयदेव, प्रभाचन्द्र, वादिराज, जिनेश्वर, चन्द्रप्रभ, अनन्तवीर्य, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र, मल्लिषेण, शान्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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