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________________ ४४ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन पाणिनी के "अस्ति-नास्ति दिष्टंमतिः" के अनुसार जैन दर्शन को हरगिज नास्तिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह इन्द्रियातीत तथ्य यानी परलोक की सत्ता को माननेवाला है। जैन दर्शन कर्ता-धर्ता-हर्ता रूपी ईश्वर को तो स्वीकार नहीं करता है लेकिन इसके अनुसार प्रत्येक जीव अपनी सृष्टि का आप ही कर्ता है। तात्त्विक दृष्टि से प्रत्येक जीव में ईश्वर भाव है जो मुक्ति के समय प्रकट होता है। योगशास्त्र सम्मत ईश्वर भी मात्र उपास्य है, कर्ता, संहर्ता नहीं है। __ आस्तिकता को यदि विश्व की शाश्वत नैतिक व्यवस्था के रूप में लिया जाय तो जैन दर्शन की आस्तिकता पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता क्योंकि इस शाश्वत नैतिक व्यवस्था में इसे दृढ़ विश्वास है ! जैन दर्शन में इस जगत को अनादि माना गया है। अनन्त सत्त्व अनादि काल से अनादिकाल तक क्षण-क्षण विपरिवर्तमान होकर अपनी मूलधारा में प्रवाहित होता है क्योंकि उनके पश्चात् संयोग एवं वियोम से यह सृष्टिचक्र स्वयं संचालित है। किसी एक बुद्धिमान ने बैठकर असंख्य कार्यकारण भाव और अनन्त स्वरूपों की कल्पना की हो और वह अपनी इच्छा से जगत् का नियंत्रण करता हो, यह वस्तुतः स्थिति के प्रतिकूल तो है ही अनुभवगम्य भी नहीं है। विश्व अपने पारस्परिक कार्यकारण भावों से स्वयं सुव्यवस्थित और सुनिश्चित है। जैन दार्शनिक वाङ्मय के विकासक्रम को चार युगों में विभक्त किया गया है-आगम, अनेकांतस्थापना, प्रमाणशास्त्र व्यवस्था एवं नवीन न्याय युग । युगों के लक्षण नाम से ही सुस्पष्ट हैं। काल मर्यादा का निर्धारण इस समय हमारा अभीष्ट नहीं है, यों इसमें मतभेद भी हैं । जैन तत्त्व विचार की प्राचीनता में संदेह तो नहीं ही है, इसकी स्वतंत्रता भी इस बात से सिद्ध है कि जब उपनिषदों में अन्य शास्त्रों के बीज मिलते हैं लेकिन जैन तत्त्व विचार के बीज नहीं मिलते । इतना ही नहीं, भगवान् महावीर प्रतिपादित आगमों में जो कर्मविचार है मार्गणा और गुणस्थान, जीवों की गति एवं अगति, लोक-व्यवस्था एवं रचना, जड़-परमाणु पुद्गलों की वर्गणा और पुद्गल स्कन्ध, द्रव्य एवं नवतत्त्व का जो व्यवस्थित विचार है, उन सबों को देखते हुये यह कहा जा सकता है कि जैन तत्त्व विचार धारा भगवान् महावीर से भी पूर्व कई पीढ़ियों की अध्यात्मोन्मुख सारस्वत साधना का प्रतिफल है और इस धारा का उपनिषद् प्रतिपादित अनेक मतों से पार्थक्य है, अतः इसका स्वातंत्र्य स्वयंसिद्ध है। जैन दर्शन का अनेकांतवाद भगवान् महावीर की विशेष देन है । इसी के बाद होने वाले जैन दार्शनिक ने जैन तत्त्व विचार को ही अनेकांतवाद के नाम से प्रतिपादित करते हुए भगवान् महावीर को उसका उपदेशक बताया। विचार के विकासक्रम और पुरातन इतिहास के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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