SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम का गंगावतरण जिस प्रकार कैलाश स्थित भगवान् शिव की जटाओं में उलझी गंगा को पृथ्वी पर लाने का श्रेय भागीरथ को है, उसी प्रकार आधुनिक युग में पाठान्तरों, भाष्य, टीका एवं चूर्णि आदि में उलझे जैनागमों को शब्द सूची, संस्कृत छाया और यहां तक कि हिन्दी अनुवाद के साथ संपादन सचमुच आगम का गंगावतरण ही है । तेरापंथ के नवम आचार्यश्री तुलसी धर्म-चक्र प्रवर्तन के लिये जब महाराष्ट्र में घूम रहे थे तो पूना के पास मनसर नामक एक छोटी जगह में "धर्मदूत" नामक एक पत्रिका देखी जिसमें बौद्धों के विशाल त्रिपिटक के पुनः संपादन का समाचार था। आचार्यश्री ने एक ओर तो बौद्धों के भाग्य को सराहा लेकिन दूसरी ओर चोट लगी कि जैन समाज कितना अभागा है कि उसने आगमों को मंदिरों एवं जैन ग्रन्थागारों की कालकोठरी में कैद रखा है ! फिर सोचा वे स्वयं ही इस गुरुतर दायित्व को क्यों नहीं उठावें । अपने परम सहयोगी एवं शिष्य मुनि नथमलजी से परामर्श करके औरंगाबाद में वि०सं० २०११ की चैत्र सुदी त्रयोदशी भगवान, महावीर जयन्ती के अवसर पर आगमों के हिन्दी अनुवाद एवं संपादन की घोषणा कर दी। इसके पूर्व इन्हें संपादन का कोई अनुभव नहीं था, इसलिये घोषणा करने में उन्हें काफी संकोच भी हुआ लेकिन यह तो पुरुषार्थ की परीक्षा थी। फिर उन्होंने सोचा कि जैनों के विभिन्न सम्प्रदायों के साधुओं और आचार्यों से सहयोग भी लिया जाये, ताकि यह सबों को मान्य हो। इसी क्रम में अपने आगरा प्रवास में उन्होंने श्री अमर मुनिजी से परामर्श किया लेकिन उन्होंने इस कार्य को दुरूह दुस्तर बताया। फिर जैन विद्या के प्रमुख आचार्य एवं विद्वान् पं० सुखलालजी, पं० बेचरदास, पं० दलसुख मालवणिया आदि से सम्पर्क किया लेकिन सबों से प्रायः निरुत्साहपूर्ण और रूखे उत्तर मिले । असल में उन विद्वानों ने आगम के अवगाहन की गंभीरता एवं दुरूहता का अनुभव किया था। भला जिसकी चूर्णियां उदार विद्वान् अगस्त्य सिंह स्थविर एवं जिनदास महत्तर की हों, जिनकी वाचना में भद्रबाहु, स्कन्दिल, नागार्जुन एवं देवद्धिगणी ने पुस्तकारूढ़ किया हो, उसकी पुनर्वाचना या टीका आदि इस समय कोई कर सकेगा, यह कल्पना के बाहर बातें थीं । देवद्धिगणी क्षमा श्रमण के पश्चात् आगम में कोई संशोधन, परिवर्तन एवं परिवर्द्धन नहीं हुआ, इसीलिये तो प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ० रौथ ने आगम की इस संपादन की योजना के विषय में सुना तो आचार्य तुलसी से कहा कि इसमें कम-से-कम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy