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जैन-न्याय में हेतु-लक्षण : एक अनुचिन्तन
त्रैरूप्य एवं पंचरूप्य की विवेचना के पश्चात् अन्यथानुपपत्ति को ही हेतु का असाधारण एवं प्रधान लक्षण बत या है। जब हेतु को अन्यथानुपपन्न कहा जाएगा तो वह साध्य के साथ अवश्य रहेगा, उसके बिना वह उत्पन्न ही नहीं होगा और न साध्याभाव के साथ रहेगा। इस तरह विविध दोष-असिद्ध, विरुद्ध एवं अनैकांतिक का परिहार हो जायगा। इसका समान-बलशाली कोई प्रतिपक्ष हेतु भी सम्भव नहीं है अतः हेतु का पांचवा रूप भी व्यर्थ है।
इसी तरह षडलक्षण हेतु (ज्ञातृत्व) को भी पृथक् मानना आवश्यक है क्योंकि हेतु ज्ञात ही नहीं, अविनाभावी रूप से निश्चित होकर ही साध्य का अनुमापक होता है जो हेतु के लिए प्राथमिक शर्ते हैं। इसी तरह विवक्षितक संख्यत्व का कथन भी जो असत्प्रतिपक्षत्व रूप है, अनावश्यक है क्योंकि अविनाभावी हेतु के प्रतिपक्षी किसी द्वितीय हेतु की संभावना नहीं है जो प्रकृत हेतु की विवक्षित एक संख्या का विघटन कर सके । अतः विवक्षितैक संख्यत्व असत्प्रतिपक्षत्व स्वरूप भी अनावश्यक है। कर्णगोमि ने रोहिणी के उदय का अनुमान कराने वाले कृत्तिकोदय हेतु में काल या आकाश को पक्ष पक्षधर्मत्व घटाने का प्रयास किया है किन्तु विद्यानंद ने कहा कि इस प्रकार परम्पराश्रित पक्ष बनाकर पक्षधर्मत्व ही सिद्ध करने से तो पृथिवी को पक्ष बनाकर महान संगत धूम से समुद्र में भी काल आकाश और पृथिवी आदि को अपेक्षा पक्षधर्मत्व घटाया जा सकेगा और इस तरह कोई व्यभिचारी हेतु अपक्ष धर्म न रहेगा। उपसंहार
जैन दर्शन ने हेतु-स्वरूप में द्विलक्षण से लेकर षड्, सप्त लक्षणों को अध्याप्त तथा अतिव्याप्त दिखाते हुए उन्हें हेतु-लक्षण नहीं माना है। उन्होंने हेतु का एक ही लक्षण माना है—अविनाभाव या अन्यथानुपपन्नत्व । किन्तु इसपर सरलीकरण का दोष लगाया जा सकता है लेकिन जिस प्रकार हेतु के एक-एक भ्रांत स्वरूप का खंडन कर उसे निरर्थक बताया गया है, इससे इनको तार्किक प्रतिभा एवं सूक्ष्मता का परिचय मिलता है। जब अन्यथानुपपन्न या अविनाभाव के नहीं रहने पर हम किसी के हेतु नहीं मान सकते, तो फिर उसे ही मानना अनिवार्य है। फिर द्विलक्षणादि नहीं मानने से कोई हानि भी तो नहीं है तो फिर उन्हें मानना व्यर्थ एवं निरर्थक है ।
१. माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख, ३।१५ साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः ।
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