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________________ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन इसलिए जब अविनाभावी हेतु के प्रयोग और प्रत्यक्षाविरुद्ध साध्य के निर्देश से तीनों दोषों के साथ बाधित विषय और सत्यतिपक्ष हेतु दोषों का भी निरास हो जाता है, अतः उसके निराकरण के लिए उद्योतकर, जयंत, वाचस्पति आदि नैयायिकों द्वारा समर्पित पांच हेतु लक्षण को मानना ही व्यर्थ हैं । जहां अन्यथानुपपन्नत्व है, वहां पांच रूप रहकर भी कुछ नहीं कर सकता--- अन्यथानुपपन्नत्वं सवैः किं पंचमि कृतम् । नान्यथानुपपन्नत्वं रूपा कि पंचमि कृतम् ॥' वादिराज ने भी "सहस्त्र में सौ" न्याय के अनुसार त्रैरूप्य-समीक्षा को इसी पंचरूप समीक्षा में विलीन कर दिया है। वादीभसिंह के अनुसार तो जथोपपत्ति ही अन्यथानुपपत्ति है और वे उसे ही अंताप्ति मानते हुए हेतु का स्वरूप स्वीकार करते हैं । माणिक्यनंदि के अनुसार जिसका साध्याविनाभाव निश्चित है, उसे हेतु कहा जाएगा जो साध्य का गणक होगा। उन्होंने अविनाभाव का नियामक बौद्धों की तरह तदुत्पत्ति और तादात्म्य को न बतलाकर सहभाव नियम और क्रमभावनियम को बताया है क्योंकि जिनमें तदुत्पत्ति और तादात्म्य नहीं है उनमें भी क्रमभाव नियम अथवा सहभाव नियम के रहने से अविनाभाव प्रतिष्ठित होता है और उसके बलपर हेतु साध्य का अनुमापक होता है। जैसे भरणि और कृत्तिकोदय में न तदुत्पत्ति है न तादात्म्य किन्तु उनमें क्रमभाव नियम होने से अविनाभाव है। जैन ताकिकों में उपर्युक्त के अलावे प्रभाचंद्र, अनतिवीर्य, अभयदेव, देवसूरि, हेमचंद्र," धर्मभूषण, यशोविजय," चारुकीत्ति,४ आदि विद्वानों ने हेतु के १. वीरसेन, षट्खंडागम टीका, धवला, ५॥५॥५, पृ० २८७ २. विद्यानन्द, प्रमाणपरीक्षा, पृ० ६२ ३. वही, पृ० ७२ ४. वादिराज, न्याय विनिश्चय विवरण, काशी, भारतीय ज्ञान पीठ, २।१७४, पृ० २१० ५. वादिभ सिंह, स्याद्वाद सिद्धि, मा० दि० जैन ग्रन्थ माला, ४-७८,७९ ६. माणिक्यनन्दि, परीक्षामुखम् सूत्र, ४।८२-८३,८४,८७-८८ ७. प्रभाचन्द्र, प्रमेयकमल मार्तण्ड, बम्बई, निर्णय सागर प्रेस, १११५ ८. अन तिवीर्य, प्रमेयरत्नमाला, चौखंभा सं०सि०, ११११, पृ० १४२-४४ ९. अभय देव, सन्मति प्रकरण टीका, गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद १०. देवसूरि, प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, अर्हत प्रभाकर, पूना, ३।११ ११. हेमचंद्र, प्रमाण मीमांसा, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, ११२,९,१० १२. धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ० ८३ १३. यशोविजय, जैन तर्कभाषा, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, पृ० १२ १४. चारुकीति, प्रमेयरत्नालंकार, मैसूर, ३।१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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