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________________ जैन - न्याय में हेतु - लक्षण : एक अनुचिन्तन ३३ ही सीमित मानते ।' अंकलंक ने धर्मकीति की आलोचना करते हुए बताया है कि कितने ही हेतु ऐसे हैं जिनमें न पक्ष धर्मत्वादि है न वे उन तीन हेतुओं केही अन्तर्गत हैं, पर उनमें अविनाभाव पाया जाता है ।" उदाहरण स्वरूप, "भविष्यत् प्रतिपद्येत शकटं कृत्तिकोदयात् ।" यहां कृत्तिका का उदय हेतु पक्ष शकट में नहीं रहता, अतः उसमें पक्षधर्मत्व नहीं है । इसी प्रकार कृत्तिका का उदय शकटोदय का न स्वभाव है और न कार्य । उपलम्भ रूप होने से उसके अनुपलम्भ होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसलिए केवल अविनाभाव के द्वारा वह अपने उत्तरवर्ती शकटोदय का गमक है ।' इस प्रकार हम देखते हैं कि हेतु का त्रिलक्षण - सिद्धांत निर्दोष नहीं है । इसके विपरीत अविनाभाव एक ऐसा व्यापक एवं अव्यभिचारी लक्षण है जो समस्त सत् हेतुओं में पाया जाता है, तथा असद् हेतुओं में नहीं । इसीलिए अकलंक ने पात्र केसरी के "अन्यथानुपपन्नत्वं" सिद्धांत को अपनाकर उसे ही हेतु का अव्यभिचारी और प्रधान लक्षण कहा है। सबको पक्ष बना लेने पर सपक्ष का अभाव होने से सपक्षत्व नहीं है, अतः अविनाभाव तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बंधों से नियंत्रित नहीं है, बल्कि वे अविनाभाव से नियंत्रित हैं । आचार्य वीरसेन ने भी साध्याविनाभावी और अन्यथानुपपत्त्येकलक्षण से युक्त बतलाया है तथा पक्षधर्मत्वादि को हेतु लक्षण मानने में अतिव्याप्ति और अव्याप्ति दोनों दोष बताए हैं । जैसे "यह भूमि समतल है क्योंकि भूमि है, समतल रूप से प्रसिद्ध भूभाग की तरह ।" इसके विपरीत अनेक हेतु ऐसे हैं जो त्रिलक्षण नहीं है पर अन्यथानुपपत्ति मात्र के सद्भाव के गमक हैं, जैसे सद्भाव " रोहिणी उदित होगी, क्योंकि कृतिका का उदय अन्यथा नहीं हो सकता ।" इसका तर्क है - " इदमन्तरेण इदमनुपपन्नम् ।" जिसका पर्यायवाची होगा-"अन्यथानुपपन्नत्वम ।" विद्यानंद' ने अकेले अन्यथानुपपत्ति के से ही तीनों दोषों (विरुद्ध, असिद्ध, अनैकांतिक) का निराकरण हो जायेगा । जहां ये तीनों दोष रहेंगे, वहां अन्यथानुपपत्ति होगी नहीं । जो हेतु अन्यथा उपपन्न है या साध्याभाव के साथ रहता है या साध्याभाव में भी विद्यमान रहता है वह अन्यथानुपपन्न कैसे कहा जा सकता है। अतः जब एक अन्यथा नुपपन्नत्व लक्षण से उन तीनों दोषों का परिहार हो जाता है तो फिर उसके निराकरण के लिए हेतु के तीन लक्षणों को मानने की जरूरत ही नहीं है । १. अकलंक, लघीयस्त्रय, का० १२ २. ३. धर्मकीत्ति हेतु बिन्दु, पृ० ५४ ४. अकलंक, लघीयस्त्रय, का० १३, १४ ५. अभय चन्द्र सूरि, लघीयस्त्रय तात्पर्यवृत्ति, माणिव्ययं ग्रन्थ पृ० ३३ न्यायविनिश्चय, का० ३७०, ३७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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