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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन
धतः" सिद्धांत को प्रतिपादित किया है जिसे अअंकलंक' ने स्पष्ट कर एक लक्षण हेतु माना है । विद्यानन्द स्वामी ने इसे हेतु प्रकाशक लक्षण माना है । पात्रस्वामी ने हेतु का एक मात्र लक्षण 'अन्यथानुपपन्नत्व'' तो माना और त्रिलक्षण की आलोचना की है जिसे शांतरक्षित ने अपनी पुस्तक में स्पष्ट ही उल्लेख किया है। पात्रस्वामी के मत का उल्लेख अनन्तवीर्य, परवर्ती सिद्धसेन,' अंकलंक, कुमार नन्दि, वीरसेन,' विद्यानन्द, आदि जैन ताकिकों ने किया है, अतः इसका विवेचन अपेक्षित है। पात्रस्वामी के ग्रन्थ "त्रिलक्षण कदर्थन" नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना हुई लेकिन वह अनुपलब्ध है, हालांकि इसका उल्लेख अनन्तवीर्य ने किया है।
पात्रस्वामी के अनुसार जिसमें अन्यथानुपपन्नत्व नहीं हैं, वह हेतु नहीं है, चाहे रूप्य रहे या नहीं। अन्यथानुपपन्नत्व के सद्भाव से गमकता और असद्भाव से अगमकता होती है। कुमारनन्दि' ने भी इसीलिए अन्यवानुपपत्तिरूप एक लक्षण को ही हेतु माना है। सिद्धसेन ने हेतु को साध्याविनाभावी कहकर अन्यथानुपपन्नत्व का पर्याय प्रकट किया। अंकलंक ने "प्रकृताभावेदनुपपन्नं साधनं"१° एवं "लिंगात्साध्याविनाभावाभिनिबोधैकलक्षणात्१ कहकर इसका समर्थन करते हुए विलक्षणों को अनुपयोगी बताया है । धर्मकीत्ति ने भी अविनाभाव को स्वीकार किया है पर वे उसे पक्षधर्मत्वादि तीन रूपों तथा स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि इन तीन हेतु भेदों में
१. अकलंक, अष्टशती, बम्बई, सेठ रामचंद्र नाथा रंग, १९१८, का० १०६
पृ० २८९ २. विद्यानन्द, अष्ट सहस्री का० १०६, पृ० २८९ ३. शांतरक्षित, तत्त्व संग्रह, का १३६४-१३७९ ४. अनन्तवीर्य, सिद्धि विनिश्चय टीका, काशी, भारतीय ज्ञान पीठ, ६।२
पृ० ३७१-६२ ५. समन्तभद्र, न्यायावतार, का० २१ ६. अकलंक, न्याय विनिश्चय, का० २।१५४,१५५, पृ० १७७ (भारतीय
ज्ञानपीठ, वाराणसी) ७. कुमारनन्दि, प्रमाण परीक्षा, सनातन जैन ग्रन्थमाला, पृ० ७२ ८. वीरसेन, षट्खंडागम टीका, धवला, ५।५।५१, ५।५।४३ ९. विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, सनातन जैन ग्रन्थमाला, पृ० ६२ १०. कुमारनन्दि, प्रमाण परीक्षा, पृ० ७२, अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणामी
रितम् । ११. सिद्धसेन, न्यायावतार, का० २२ १२. अकलंक, न्यायविनिश्चय, का० २६९, प्रमाण संग्रह, का० २१
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