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जैन-न्याय में हेतु-लक्षण : एक अनुचिन्तन
ने भी हेतु के तीन लक्षणों को मान्य कर तीन हेत्वाभासों का निराकरण बताया है। हां, जयन्त भट्ट और वाचस्पति मिश्र ने जैन तार्किकों के अनुसार हेतु के एक लक्षण अविनाभाव के महत्त्व एवं अनिवार्यता को स्वीकार कर उसे पंचलक्षणों में समाप्त माना है।' वाचस्पति के अनुसार तो हेतु के एक लक्षण अविनाभाव के द्वारा ही हेतु के पंचलक्षण सिद्ध हो जाते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि न्याय-परम्परा में हेतु के द्विलक्षण, त्रिलक्षण, चतुर्लक्षण एवं पंचलक्षण-ये चार मान्यताएं रही हैं किन्तु पंचलक्षण की मान्यता उत्तरकाल में अधिक रही। मीमांसक विद्वान् शालिकानाथ' ने विलक्षण हेतु बताया है पर उनका विलक्षण (नियत सम्बन्धक दर्शन सम्बंध नियम स्मरण और अबाधित विषयत्व) दूसरों से भिन्न है। हेतु के षड्लक्षण
प्राचीन नैयायिकों ने ज्ञापमान हेतु को और भाट्टमीमांसकों ने ज्ञानता को अनुमति में कारण कहा है। धर्मकीत्ति और अर्यर' ने भी इसी का उल्लेख किया है। धर्मकीत्ति ने नैयायिकों और मीमांसकों की किसी मान्यता के आधार पर हेतु का षड्लक्षण' स्वीकार किया है, यद्यपि इसकी मान्यता न नैयायिकों के यहां उपलब्ध है न मीमांसकों के यहां । हेतु के सप्तलक्षण
वादिराज' ने हेतु की सप्तलक्षण मान्यता (अन्यथानुपपन्नत्व, २. ज्ञातत्व, ३. अबाधित विषयत्व, ४. असत्प्रतिपक्षत्व, ५-७ पक्षधर्मत्वादि, पर तीन ) की समीक्षा की है किन्तु इसका स्रोत नहीं बताया है। जैन दर्शन में हेतु-लक्षण
स्वामी समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में सूत्र रूप से हेतु का "अविरो१. देखिए, जयन्त भट्ट, न्याय कलिका, २, वायस्पति मिश्र, न्यायवात्तिक
तात्पर्यटीका, ११११५, पृ० १७ २. शालिका नाथ मिश्र, प्रकरण पत्रिका, वाराणसी, काशी हिन्दू विश्व
विद्यालय, १९६५ पृ० १२२ । ३. विश्वनाथ पंचानन, सिद्धांत मुक्तावली, बम्बई, गुजराती प्रेस, १९२३,
का० ६७, पृ० ५० ४. धर्मकीर्ति, हेतु बिन्दु, पृ० ६८ ५. अर्यर, हेतु बिन्दु टीका, बड़ौदा, ओरियंटल इन्स्टीच्यूट, १९४९, पृ० २०५ ६. धर्मकीत्ति, हेतु बिन्दु, पृ० ६८ षडलक्षणो हेतुरित्यपरे १ ७. वादिराज, न्याय विनिश्चय विवरण, वाराणसी, भारतीय ज्ञानपीठ, वि०
१०८२, २।१५५, पृ० १७८-८० ८. समन्त भद्र, आप्त मीमांसा, अनु० जुगल किशोर मुख्त्यार, दिल्ली, वीर
सेवा मंदिर, १९६७, का० १०६
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