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ज्ञान की सीमायें और सर्वज्ञता की संभावनायें
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और अनिश्चयता को दूर कर सृष्टि की संश्लिष्टताओं को समझना ही है । इसके ज्ञान की कोई सीमा नहीं । यह ठीक है कि रूढ़िवादी दर्शन-परम्परा की तरह यह सत्य के विषय में अंतिम निर्णय नहीं देना चाहता, किन्तु इसका आदर्श सृष्टि के समस्त रहस्यों का भेदन करना ही है । अतः यह सर्वज्ञता की एक स्वस्थ एवं सुदृढ़ परिकल्पना पर प्रतिष्ठित है । यह कहा जा सकता है कि आकांक्षा, उद्देश्य या आदर्श का सत्य एवं तथ्य के साथ अविनाभाव संबन्ध सामान्यतः नहीं होता है; लेकिन हम इसे चाहे बिल्कुल सत्य भले ही नहीं मानें किन्तु इसकी संभावना को तो, चाहे जितने भी अंश में, स्वीकार कर ही सकते हैं । आखिर ज्ञान-विज्ञान का विस्तार भी इसी क्रम से हुआ है । (ख) परामनोविद्या में सर्वज्ञता की संभावना
पातंजल योग सूत्र” में एवं अन्य योग-ग्रन्थों में सर्वज्ञता की स्थिति को सत्य माना गया है । योगशास्त्र' के अनुसार सर्वज्ञता संयम, विवेक आदि से प्राप्य है । योगी - ज्ञान के लिये यह संभव है। खैर, यह तो पुरानी बातें हैं । परामनोविद्या की अद्यतन भूमिका में जब अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ( क्लेयरवोयेंस, टेलीपेथी, क्लेयरभाडियेंस आदि = इन्द्रियेतर ज्ञान तथा प्राग्ज्ञान आदि ) सम्बन्धी सहस्रों सफल अनुसंधान हो चुके हैं तो इससे सर्वज्ञता की संभावना बहुत हद तक स्वत: सिद्ध हो जाती है ।
(ग) धार्मिक अनुभूति में सर्वज्ञता की संभावना
"धर्म - मनोविज्ञान' ने भी धार्मिक अनुभूति को स्वीकार किया है जो निश्चित रूप से इन्द्रिय अनुभूति से बहुत भिन्न है । धार्मिक रहस्यानुभूति की बात तो और ही है जहां विचार और वस्तु जगत् एकाकार होकर ज्ञान-जगत में एक विलक्षण सृजनात्मक अध्याय प्रारम्भ करता है । यह ज्ञान अकाट्य rasa एवं निर्बाध होता है । इसीलिये तो धार्मिक पैगम्बर सर्वज्ञ माने गये हैं । अत: धार्मिक-आध्यात्मिक अनुभूति में सर्वज्ञता का अमिट संकेत है । (घ) निरपेक्षवाद में सर्वज्ञता की संभावना
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निरपेक्षवादी दर्शनों में सर्वज्ञता का बीज अन्तर्निहित है । जैसे उपनिषद् में, जहां आत्मा को सर्वोच्च सत्ता माना गया है, वहां उसका ज्ञान ही सब का ज्ञान करा देगा । इसीलिये तो कहा गया है " यः आत्मवित् स सर्ववित् । अद्वैत वेदान्त में, जहां ब्रह्म को चरम सत्ता स्वीकार किया गया
१. योग सूत्र ३.५० ; ३.१४; ३.१६; ३.४४; ३.३४.
२. राधाकृष्णन् कृत Idealistic View of Life पृ० ८४, देखिये Counter attack from the East, by C. E. M. Joad, 79-801 ३. कौशीतिकी ४.१९ ।
४. बृहद् ३.७.१; ४.५.६; प्रश्न ४.१०-११ ।
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