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________________ जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन है, उसका ज्ञान ही सर्वज्ञता है; यों सर्वज्ञता तो “प्राज्ञ' स्थिति में ही हो 'जाती है । सर्वोच्च सत्ता का ज्ञान सर्वज्ञता से ही संभव है। ज्ञान एवं सत्य साथ-साथ चलते हैं। सर्वोच्च सत्ता के ज्ञान में सर्वज्ञता प्रतिफलित होगी ही। सर्वोच्च सत्ता के बाहर तो कुछ भी नहीं है, अतः इसके ज्ञान में सब का ज्ञान समाहित है। (च) ज्ञान की सर्व संग्राहकता में सर्वज्ञता की संभावना ज्ञान के अन्तर्गत सब कुछ है क्योंकि इसकी प्रकृति सर्व संग्राहकता है।' अतः ज्ञान की सीमा वस्तुतः हमारी अपनी सीमायें हैं, इसीलिये तो इसका क्रमशः विकास होता ही रहा है। मानवीय ज्ञान से परे पदार्थ अज्ञात रह सकते हैं लेकिन अज्ञेय नहीं क्योंकि अज्ञान को भी अज्ञात रूप से जानना ज्ञान ही है । इसीलिये संशयवाद और अज्ञेयवाद के लिये कोई गुंजाइश नहीं। प्रत्यक्ष की सीमा ज्ञान की सीमा नहीं है, इसीलिये जिसका प्रात्यक्षिक प्रामाण्य नहीं हुआ तो उसका प्रामाण्य होगा ही नहीं, यह भ्रान्त धारणा है । अपने ज्ञान के विषय में कोई भी सीमा बांधना ज्ञान के उच्चतर गवाक्षोंकल्पना, चिंतन, कर्त्तव्यानुभूति, बौद्धिक एवं सौन्दर्यानुभूति आदि की उपेक्षा कर अपने को ही झुठलाना है। १०. उपसंहार सर्वज्ञता का विचार हमें अंधविश्वास पूर्ण एवं रूढ़िगत इसलिये दृष्टिगोचर होता है कि हम में ज्ञान की स्वनिर्मित, संकुचित एवं परम्परा से प्रतिष्ठित सीमाओं के उल्लंघन के बौद्धिक साहस का अभाव है। हम ज्ञान के प्रस्तुत एवं प्रचलित गवाक्षों से ही विश्व की समस्त व्यूह रचना देखने के अभ्यस्त हो गये हैं । स्वभावतः हम सर्वज्ञता के स्वर्ग द्वार तक पहुंचने से वचित रह जाते हैं । किन्तु हमें मानना चाहिये कि हमारे ज्ञान को मान्य साधनों की सचमुच अपनी निरीह सीमायें है। लेकिन अज्ञात अज्ञेय नहीं रह सकता, जब तक हम स्वयं अज्ञान के अनन्त अंधकार में अपनी विवशताओं में ही आबद्ध रहने का निश्चय न कर लें। ज्यों-ज्यों मानव ज्ञान की अपनी शक्ति का विकास करता जाएगा, अज्ञान एवं अज्ञात के आवरण भी स्वयं दूर होते जायेंगे । अतः मौलिक रूप से, ज्ञान की सम्पूर्ण संभावनायें, उपलब्ध या १. Angus Sincliar, The Condition of Knowing, Lond. 1957, p. 13. २. G.T Ladd : Knowledge, Life & Reality, New Haven, 1918, p. 98. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003097
Book TitleJain Darshan Chintan Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjee Singh
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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