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ज्ञान की सीमायें और सर्वज्ञता की संभावनायें
चुका है। चूंकि ईश्वरादिक सर्वज्ञ नहीं है इसलिये दूर अन्तरित पदार्थ अर्हन्त के परमार्थ प्रत्यक्ष है, क्योंकि प्रमेय है। इस तरह हम देखते हैं कि अकलंक सर्वप्रथम अनुमेयत्व के बदले प्रमेयत्व सेतु लाया । (ग) ज्योतिर्ज्ञान विसंवाद
जिस प्रकार ज्योतिष शास्त्र नक्षत्रों एवं सूर्य या चन्द्र ग्रहणों के विषय में निश्चित ज्ञान देता है उससे हम यह अनुमान कर सकते हैं कि बिना इन्द्रिय वस्तु सम्पर्क के भी ज्ञान संभव है। इसी प्रकार प्रश्न-विद्या या ईक्षणी विद्या से अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान होता है उसी प्रकार सर्वज्ञ का ज्ञान अतीन्द्रिय पदार्थों का भासक होता है । यह भट्ट अकलंक की प्रमुख युक्ति है। (घ) सुनिश्चित संभवद् बाधक प्रमाण
अकलंक ने इस हेतु का सर्वज्ञ सिद्धि के लिये प्रयोग कर इसे सबसे बड़ा प्रमाण माना है कि इसकी सत्ता में कोई बाधक प्रमाण नहीं है।' इसी को संकेत कर स्वामी विद्यानंद ने कहा कि यदि छः प्रमाणों से सर्वज्ञ सिद्ध हो तो उसे कौन रोक सकता है ? आचार्य हेमचन्द्र ने मी 'बाधकाभावाच्च" कहकर इसको समर्थित किया है । प्रभाचन्द्र ने छहों प्रमाणों से सर्वज्ञ सिद्ध कर दिखाया है। (च) प्रजातिशय-प्रमाण
ज्ञान का तारतम्य ही सर्वज्ञ के अस्तित्व का बीज है। ज्ञान का भी मात्रा भेद होता है जिसकी पूर्णाहुति सर्वज्ञता में होगी। सुखलालजी इस प्रमाण का मूल योग-सूत्र में मानते हैं जिसे फिर न्याय-वैशेषिक-बौद्ध-जैन आदि ने लिया। किन्तु मीमांसकों का कहना है कि ज्ञान चाहे जितना भी
१. आप्त परीक्षा-का २४६ । २. न्याय-विनिश्चय का. ४१४ । सिद्ध विनिश्चय टीका पृ० ४१३ । स्याद्वाद
मंजरी श्लोक २६ । तुलना-तत्त्वसंग्रद का-३१६६ । आप्तपरीक्षा का.
३. न्याय विनिश्चय प्रवचन प्रस्ताव का. १९ । ४. आप्त परीक्षा-कारिका ९३; मीमांसा श्लोक वार्तिक ४.५.८४ । ५. प्रमाण-मीमांसा १.१.१७ । ६. प्रमेय कमल मार्तण्ड पृ० २४७ से २६६; न्याय कुमुदचन्द्र-भाग १, पृ० ___८६ से ९७। ७. प्रमाण-मीमांसा १.१.१६; स्याद्वाद मंजरी (टीका) श्लोक १७ । ८. दर्शन और चिंतन पृ० ४२८ । ९. पतंजलि का योग सूत्र "तत्र निरतिशय सर्वज्ञ बीजम्' १/२५ ।
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