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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन हो जाता है। किन्तु जिस प्रकार मेघ हटने मात्र से ही सूर्य का अविच्छिन्न प्रकाश मिलता है उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्मों के प्रक्षय होने से ही जीव को सब वस्तुओं का ज्ञान स्पष्ट हो जाता है। स्वामी विद्यानन्द ने हरिभद्र कृत योग बिन्दु' से इस विषय का एक महत्त्वपूर्ण श्लोक "ज्ञो ज्ञेयेकथमज्ञः" उद्धृत कर उसकी तार्किक विवेचना कर सर्वज्ञ सिद्धि की है। अकलंक ने भी न्याय-विनिश्चय' में इसी तरह की अन्य रोचक उपमायें दी हैं। हां, बौद्धों का अनात्मवादी पूर्वाग्रह इस तर्क को स्वीकार करने में बाधक होगा। उनके अनुसार सर्वज्ञता के ज्ञान में विश्व का अनात्म रूप-ज्ञान होना चाहिये क्योंकि सत्ता को तो बौद्ध अनात्म रूप मानते हैं। कमलशील ने शांत रक्षित की तत्सम्बन्धी कारिका पर भाष्य करते हुए सर्वज्ञता को प्रमाणित मानकर अनात्मवाद को प्रतिष्ठित करना चाहा जब जैन दार्शनिक आत्मवाद पर ही सर्वज्ञता प्रतिष्ठित करते हैं । अकलंक पूछते हैं कि जबकि अज्ञानावरण हट जाता है तो फिर जानने को रह ही क्या जाता है ?' (ख) समन्तभद्र का अनुमेयत्व-प्रमाण
स्वामी समन्तभद्र ने सर्वज्ञता की सिद्धि इस अनुमान से की है-- सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं क्योंकि वे अनुमान से जाने जाते हैं, जैसे अग्नि आदि । न्याय दीपिकाकार धर्मभूषण' इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि यहां "प्रत्यक्ष" का अर्थ "प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय" विवक्षित है क्योंकि विषयी (ज्ञान) के धर्म (जानना) का विषय में उपचार होता है । सूक्ष्मादि अतीन्द्रिय पदार्थ चूंकि हम लोग अनुमान से जानते हैं अतएव वे किसी के प्रत्यक्ष भी हैं और जिसके प्रत्यक्ष हैं वही सर्वज्ञ हैं। कुमारिल प्रत्यक्ष को इन्द्रिय-जन्यता पर बल देकर कहते हैं कि उनका जब प्रत्यक्ष ही आवश्यक है तो अनुमेयत्व की पूर्वकल्पना व्यर्थ है । अकलंक इसके उत्तर में कहते हैं कि अनुमान का वही विषय है जो प्रत्यक्ष का विषय हो १. अष्ट साहस्री पृ० ५० । २. योग बिन्दु श्लोक ४३१ ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धने । ३. न्याय-विनिश्चय-विवरणम्-द्वितीय भाग-सम्पा. महेन्द्रकुमार, ज्ञान पीठ
भाग-२, पृ० २९४ न्याय वि. ३/७९, मलेरि मणि विद्ध:-आदि । ४. तत्त्वसंग्रह-३३३७, ३३३८ । ५. तत्त्वसंग्रह-३३४० । ६. न्याय विनिश्चय-कारिका ४६५ । ७. आप्त मीमांसा कारिका ५। ८. न्याय दीपिका पृ० ४१, ४२ । ९. मीमांसा दर्शन १.१.४ ।
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