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जैनदर्शन : चिन्तन-अनुचिन्तन अनागत रूपेण अनुभव किया जाता है। कर्मादि क्षय होने के कारण केवल ज्ञान को देश काल की बाधा नहीं रहती है। (ख) वक्तृत्व सम्बन्धी आरोप
(१) मीमांसक अर्हन्त को इसलिये सर्वज्ञ नहीं मानते कि वह वक्ता है। और रथ्यापुत्र की तरह साधारण व्यक्ति। किन्तु वक्तृत्व एवं सर्वज्ञत्व में कोई विरोध नहीं । ज्ञान की वृद्धि के साथ-साथ वक्तृत्व की प्रकर्षता इसको सिद्ध करती है । अतः यह आरोप गलत मानना चाहिये।
(२) चूंकि वक्तृत्व का सम्बन्ध विवक्षा से है, अतः वीतराग अर्हन्त में वक्तृत्व नहीं हो सकता । किन्तु उत्तर में यह कहा जा सकता है कि वक्तृत्व एवं विवक्षा में अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है क्योंकि सुषुप्त या मूच्छित व्यक्ति में विवक्षा का अभाव होने पर भी वचन की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है और विपरीत मूर्ख एवं मंद बुद्धि में कितनी भी विवक्षा रहने पर वक्तृता नहीं आती।
(३) अर्हन्त के वचन प्रमाण नहीं हो सकते क्योंकि अर्हन्त बुद्धादि की तरह एक व्यक्ति है। इसके उत्तर में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि वीतराग व्यक्ति के वचन ही यथार्थ माने जाते हैं। दूसरे तो झूठ भी बोल सकते हैं। (ग) अन्य यौक्तिक आरोप एवं उत्तर
(१) चूंकि हमें किसी भी प्रमाण से सर्वज्ञ उपलब्ध नहीं होता अतः अनुपलम्भ होने से उसका अभाव मान लेना चाहिये। इसको तो सबसे पहले माना नहीं जा सकता क्योंकि षट् प्रमाणों के आधार पर सर्वज्ञ की सिद्धि की है । फिर यह अनुपलम्भ किसको माना जाय-अपने को या सबको ? यदि प्रश्न-कर्ता या संशय-कर्ता को यह अनुपलम्भ है तो कोई बात नहीं। दुनिया में उनके द्वारा अनुपलब्ध असंख्य पदार्थों का अस्तित्व है। लेकिन यदि संशयकर्ता यह कहते हैं कि "सब को सर्वज्ञ का अनुपलम्भ है ' तो यह सब के ज्ञानों को जानने वाला सर्वज्ञ ही होगा, असर्वज्ञ नहीं। अतः सर्वानुपलम्भ असिद्ध
१. मीमांसा श्लोकवार्तिक, चोदना सूत्र, श्लोक १५८ । २. स्याद्वाद सिद्धि सम्पादक-दरबारीलाल, मा. च. दि. ग्रन्थमाला पृ० २९, __ जैन-दर्शन प० ३०९-३१०।। ३. मीमांसा श्लोक वार्तिक-चो. सूत्र-श्लोक १६१ । ४. वही, पृ० २९-३०; जैन दर्शन पृ० ३१० । ५. स्याद्वाद सिद्धि पृ० ३०; अर्हत्सर्वज्ञ सिद्धिः श्लोक १६,१७,१८ । ६. जैन दर्शन पृ० ३१०-३११ ।
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