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ज्ञान की सीमायें और सर्वज्ञता की सभावनायें
जाएगी। किन्तु यह आरोप भी सही नहीं है। रागादि हमारे मनोविकार से उत्पन्न होते हैं, ये आत्मा के गुण नहीं। फिर आसक्ति और आसक्ति का ज्ञान अलग है। जिस प्रकार मद्य के लाभ-हानि आदि को जानने वाला स्वभावतः मद्यपी नहीं हो जाता उसी प्रकार रागादि का ज्ञान हो जाने से ही रागासक्त नहीं हो जाता।
इसी तरह सर्वज्ञ को सभी अशुचि पदार्थों को जान लेने से ही रसास्वादन का दोष नहीं लगता। फिर सर्वज्ञ का ज्ञान तो अतीन्द्रिय होता है।' इन्द्रिय से जब सम्बन्ध नहीं तो फिर इन्द्रियासक्ति कैसे होगी ? खैर, योगाचार तो बाह्य-संसार का अस्तित्व ही समाप्त कर इन सब झंझटों से छुट्टी ले लेते हैं।
(४) यदि सर्वज्ञता का अर्थ अखिल वस्तु पर्यायों का ज्ञान (जो कठिन है) न रख कर केवल प्रधान भूत वस्तुओं का ज्ञान माना जाय तो इसमें भी एक कठिनाई होगी; जैसे किन्हीं प्रधान वस्तुओं से अप्रधान वस्तुओं का भेद तब तक नहीं किया जा सकता जब तक हम संसार को समस्त वस्तुओं का परिज्ञान नहीं कर लें और समस्त वस्तुओं के परिज्ञान की भीषणता से बचने के लिये केवल प्रधान वस्तुओं का ज्ञान अपेक्षित समझा गया था। अतः यहां भी कठिनाई हो गयी है।
(५) यदि सर्वज्ञता के ज्ञान में अनादि और अनन्त झलकते हैं तो उनकी अनादिता या अनन्तता नहीं रह पाती। इसके उत्तर में यह कहा जाएगा कि जो पदार्थ जैसे हैं वैसे ही ज्ञान में प्रतिभासित होते हैं। किसी के स्वभाव को अन्यथा नहीं किया जा सकता, न अन्य रूप में वह केवल ज्ञान का विषय होगा।
(६) यदि सर्वज्ञता के ज्ञान में अतीत एवं अनागत (जिनकी वर्तमान में सत्ता नहीं है) का बोध होता है तो इसका अर्थ हुआ कि केवलज्ञान में असत् वस्तु का बोध होने से वह विपर्यय एवं विभ्रम पूर्ण है। किन्तु यह आरोप लगाने वाले भूल जाते हैं कि अतीत की वस्तुओं की अतीत में वही सत्ता है जो वर्तमान कालिक वस्तुओं की है। इसी तरह भविष्य के विषय में कहा जा सकता है।
(७) किन्तु यदि अतीत और अनागत वर्तमान रूप से अनुभूत होते हैं तो फिर वर्तमान का अनुभव मानना चाहिये। किन्तु इसके विषय में तो पहले ही कहा जा चुका है कि अतीत का वर्तमान में अतीत रूपेण और १. तत्त्वसंग्रह -का. ३३१८-९; तत्त्वसंग्रह का. ३३८१-८९ । २. प्रमेय कमल मार्तण्ड पृ० २५४-२५५ । ३. वही पृ० २५४-२५५ ।
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